एक सन्यासी जा रहे थे | बीच रास्तें में एक श्वान मिला | श्वान जैसे ही नज़दीक आया तो सन्यासी ने हाथ में रही लाठी दे मारी | दर्द से कराहता-चिल्लाता हुआ श्वान भागा | वह सीधा राजा के पास गया और भरी सभा में सन्यासी की शिकायत की | राजाने सन्यासी को सभा में लाने के लिएं सैनिकों को हुक्म दिया | कुछ ही समय में सन्यासी को लेकर सैनिक पहुंचे | सन्यासी को आश्चर्य तब हुआ, जब उन्हों ने राजा के समक्ष भरी सभा में उसी श्वान को देखा जिसे उन्हों ने लाठी मारी थी | राजा ने कहा; "आप कैसे सन्यासी है? निर्दोष श्वान को लाठी मारी? सन्यासी होकर भी दया और प्यार नहीं है आपके दिल में...?" सन्यासी बोले; "महाराज, यह वही श्वान है, जो मुझे काटने के लिएं मेरी और दौड़कर आया था |" राजाने श्वान की ओर देखा तो तुरंत श्वान बोला; "महाराज, मैंने जब गेरुएँ रंग के वस्त्रों में ईस सन्यासी को देखा तो मेरे मन में पूज्यभाव पैदा हो गया था | सन्यासी के हाथों में लाठी होने के बावजूद मैं घबराया नहीं | क्यूंकि मुझे क्या पता था कि सन्यासी के भेष में ये कोई सामान्य इन्सान होगा? मैं तो उसी विश्वास से दौड़ा था, महाराज !" महाराजा ने तुरंत फैंसला सुनाने जा रहे थे कि सन्यासी ने कहा; "हुजूर, मैं संन्यास के लायक नहीं हूँ...... मैं ईस श्वान की भक्ति और श्रद्धा को परख नहीं पाया | मुझे ये गेरुएँ रंग के वस्त्रों को उतार देना चाहिए... " सन्यासी का पश्च्याताप देखकर और दिल की आवाज़ को सुनकर राजा ने उन्हें पूर्ण सम्मान से कहा; "स्वामीजी, आजतक आपने सिर्फ सन्यासी की पहचान के वस्त्र ही पहने थे, मगर अब तो आप स्वयं सन्यासी बन गाएँ है ! मैं आपको साष्टांग दंडवत करता हूँ | मेरी एक बिनती है कि आप..." राजा आगे कुछ भी बोले, सन्यासी श्वान के पास गएं और प्यार से उनके शरीर पर हाथ फेरते रहे... !

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