२४ घंटे को कौन बाँध सका है? कईं बार लगता है की इन २४ घंटों में मैं यह कर लूं, वो कर लूं, मगर होता कुछ नहीं | जब अपनों ने ही मुझे तोड़ दिया और मैं उन भरोसे पे जीता था कि सबकुछ सोच-समझ से बाहर था... अब कुछ भी तो हाथ में नहीं है | मैं उनको समझूं या वो मुझे... यही बात थी और घर की दहलीज पार कर गया | समय बहुत कम था, क्या कुछ करना था हमें प्यार के लिए ...! मरते थे एक दूसरे पर | मगर ये वही लोग हैं जो हमेशा बहाना करते थे कि हमारे पास समय ही कहाँ? वो लोग इन दिनों बेकार हो गए और धरते रहे ध्यान हमारे बारे में... २४ घंटा पूरा भी नहीं हुआ और बेटियों ने आवाज़ लगाई हमें.... मिलने सुकून मिलेगा यही छोटी सी सोच थी | जब लौटा तो उसी गहरी घाटियों में उलझ गया... ! समय बीतने लगा... मगर मेरा समय गुज़रता नहीं, थम सा गया है- समय और ज़िंदगी.... उसी चौराहे पर खडा हूँ जहां से कहीं भी जा सकता था | आज वही चौराहा दीवार बनकर खडा है और मैं कैद हूँ अपनी ही गलियों में... इन २४ घंटे ने मेरी ज़िंदगी के पन्नों को पीला कर दिया, उधर से दीमक उभर आई है... जानता हूँ कि अब समय नहीं है... पहले मैं इंतजार करता था उसका, और अब... उस दीमक का, जो निश्चित कर बैठी है मेरे अंत को.... !