वो भी दिवाली के दिन थे...
ठान ली थी एक औरत ने आज
बेटी की जिद्द पर गुडिया लेने की
वह भी ईलेकत्रोनिक्स, महंगी वाली
बहुत समझाई थी उसे मगर मनाने से
मान जाएं तो बच्चे नहीं !

उन्हें आशा थी
कि आज तो
लोग अपने घरों से रद्दी के सामान का
अंबार लगा देंगे
लंबा सफ़र भले ही तय करना पड़े
मगर बेटी को गुडिया दिलाकर ही रहूँगी

शाम ढल चुकी और सड़कें चमचमाने लगीं
कंधे पर रद्दी का बड़ा सा थैला लिएँ
औरत हवा में उड़ रही थी
पीछे उनकी बेटी आँखों में चमक लिएँ
दुनिया से बेखबर... दौड़ रही थी....

सड़क के एक कोने में पड़े खिलौने को
देख रहा नहीं गया और
बेटी मुड गई उस तरफ... माँ तो सड़क पार
खिलौना हाथ में आया तो बेटीने
खुशी से उछलकर सीने से लगाई प्यारी सी
गुडिया को...

बड़ा सा धमाका हुआ और शहर थर्रा गया
सड़कें थम गई, लोगों के होशहवास उड़ गएं
पुलिस की गाड़ियां चींखने लगी
सन्नाटे के बीच सड़क के उस पार से
घायल हुई माँ ढूंढ रही थी फूल सी बेटी को
लहुलूहान, बंद आँखे, कांपते हाथ
राख के ढेर में फैलाती हुई
भय और दर्द से लथपथ
मेरी बेटी...
कोमल सी ऊँगलियाँ आई हाथ में...
और
अखबारों के पन्ने छप रहे थे उस
औरत के काले आँसूंओं से....!!

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बृहस्पतिवार को "विश्वगाथा" पर आपके लिए एक नई ताक़त, आत्मसम्मान, सामाजिक सेवाओं की नींव में से उभरती संवेदनात्मक कविताओं का परिचय होगा |