मारे शहर में रेलवे स्टेशन के पास एक ज़माने में अंधविद्यालय की शुरुआत हुई थी और उसी में वृद्धाश्रम। मैं बचपन से उस संस्था को देखता आया हूँ। संस्था का एक मुखपत्र था। जिसमें अंध बच्चे और वृद्धाश्रम बारे में संवेदनशील बातें भी प्रकट होती थी। उस समय से मुझे वृद्धाश्रम के प्रति विचित्र संवेदना होती थी, हालाँकि उसमें दयाभाव और करुणा विशेष थी। मुझे कई सवाल भी होते थे कि यह लोग यहाँ क्यूं? समझ के साथ वृद्धाश्रम के प्रति मेरी नाराज़गी बढ़ती गई। क्योंकि हम तो संयुक्त परिवार में रहने के आदी थे, मगर अब वह स्थिति नहीं रही... जिसकी व्यथा दिल को चीरती है। माता-पिता को गँवाने के बाद नौकरी के चलते विभाजन अपने आप होने लगा। आज हमारे ही बच्चों को दादाजी और दादीमाँ का प्यार नही मिलने का अफ़सोस है।

उस वृद्धाश्रम को क़रीब पचास से ज़्यादा वर्ष हो चुके हैं। उसके बाद कई वर्षों तक एक भी वृद्धाश्रम शहर में नहीं था। मगर दु:ख की बात यह है कि पिछले डेढ वर्ष में ही दो नए वृद्धाश्रम बन गए हैं। यह सब देखकर लगता है कि हमारे बुज़ुर्गों का सुख बहुत तेज़ी से छीना जा रहा है। पिछले वर्ष २-मई को "जीवन सन्ध्या वृद्धाश्रम" का लोकार्पण सुप्रसिद्ध कथाकार पूज्यश्री मोरारीबापू के द्वारा किया गया था। गुजरात सुरेंद्रनगर जिले के खोडु गाँव के मूलनिवासी श्री लालाराम भोजविया ने कई वर्षों तक दिल्ली में रहकर अर्थोपार्जन किया था। उनकी पत्नी के देहान्त के बाद स्मृति के रुप में यह वृद्धाश्रम बनाया गया है। वह देवीपूजक जाति के हैं।

सुरेंद्रनगर जिला वैसे झालावाड़ के नाम से भी प्रचलित है। यहाँ के सेंकड़ों देवीपूजक दिल्ली में ज़्यादातर कलात्मक चीज़ों का व्यापार करते हैं। जिसकी न सिर्फ़ भारत में बल्कि विदेशों में भी बडी माँग है। जिसमें देसी कसीदेवाली चीज़ें, नक्काशीदार दरवाज़े के चौखटे, खिडकियाँ, पीटारे स्तम्भ, चबूतरे आदि एन्टिक पीस बेचाते थे। आधुनिक सुविधा वाले वृद्धाश्रम के सर्जन से लोग प्रसन्न थे। मुझे निमन्त्रण कार्ड मिला तो काफ़ी विषाद हुआ। कई एसे भी लोग देखें है जो कोई भी निमन्त्रण कार्ड मिले तो गौरवप्राप्ति के साथ सबको दिखाकर अपनी महत्ता साबित करतें है। मैं सोचता था कि सिर्फ़ डेढ वर्ष में ही दूसरा वृद्धाश्रम ? यह चिन्ता का विषय है। युवापीढी के लिए यह प्रगति भी शर्मनाक है। हमारी समाज व्यवस्था में ऐसी क्या कमीं है? वृद्धाश्रम के खुलाते दरवाज़े हमारी आँखों को क्यों नही खोल पाता ? प्राथमिक शिक्षकों के एक सेमीनार में मैने एक दलित शिक्षक को खुली चुनौती देते हुए सुना था। उसने कहा था कि हमारी जाति के एक भी वृद्ध को आप वृद्धाश्रम में पाओ तो उसे मेरे घर भेज देना। मैं उनकी ज़िंदगीभर सेवा करुँगा। मज़दूरी करके दो वक़्त की रोटी कमानेवाले लोग भाले ही झुग्गियों में रहते हो, मगर उनका परिवार संयुक्त होता है। जब कि बडे घरों में माँ-बाप बहुत कम दिखातें है, यही कारण है कि व्रुद्धाश्रमों की संख्या में दिन-प्रतिदिन बढ़ोतरी हो रही है।

मेरा एक मित्र है, जसवंतसिंह हरभजनसिंह उर्फ़ जस्सी। पंजाब के नवाँशहर के सुख्खों गाँ व मूल निवासी है और पिछले पन्द्रह वर्षों से अहमदावाद में रहता है। ख़ुद रिटायर्ड फ़ौज़ी है और होटल जनपथ के मालिक भी। गुजरात में विरमगाँव-अमदावा के बीच सचाना गाँव के रेलवे क्रॉसिंग से दो किलोमीटर की दूरी पर "श्री हरि चेरिटेबल ट्रस्ट" के वो ट्रस्टी है। ईस संस्था में प्राईमरी स्कूल और वृद्धाश्रम है। यहाँ चालीस से ज़्यादा वृद्धों के लिए सुविधा है।

मैने एकबार जसवंतसिंह से पुछा था, "दोस्त ! प्राईमरी स्कूल तो ठीक है, मगर यह वृद्धाश्रम बनाने का ख्याल क्यूं आया ?"

वह मेरी बात के मर्म को समझ गया। धीर-गंभीर होकर जस्सीभाई ने जो जवाब दिया था, उसका जवाब हमसब के पास होने के बाद भी लाचारी है। यही अहसास ने मेरी रूह को बूरी तरह छटपटाई थी। वह बोले थे, "मेरी दृष्टि से पालनेघर से ही वृद्धाश्रम की शुरुआत होती है।" फिर तो कई बातें हमारे बीच में हुई मगर मुझे उनके शब्दों के तीर ने घायल कर दिया था। उनकी बात बिलकुल सही लग रही थी। दौड़धूप की ज़िंदगी में हमारे ही बच्चों के लिए समय नहीं होता और उन्हें हमारे लिए ! हमारी नौकरी और अन्य प्रवृत्तियों के बीच बच्चों को आया की गोद में या पालानेघर के सहारे छोड देतें है। परिणाम स्वरूप माता-पिता और बच्चों के बीच न संवाद होता है और न ही संवेदना का भावावरण बनता है। हम एक-दूसरे की अभिव्यक्ति को समझने में ग़लती करतें है और उसी के विपरित परिणाम आज वृद्धाश्रम बनकर खडे हैं।

हमारे पास टीवी है। अलग-अलग बेडरुम है। जो वास्तव में "बेड" साबित हो रहे हैं। हमारे पास अर्वाचीन अनुकरण है, यानी प्राचीनता की नक्करता टूट चुकी है। संस्कृति और सभ्यता के वाहक बनने के बजाय नकारात्मक विकार-विचार के हम आदी होने लगे हैं। यह सब देखकर लगता है कि सरदार जसवंतसिंह उर्फ़ जस्सी वर्तमान को सही अर्थ में समझ रहे हैं। उन्हों ने कहा, "जब तक पालनेघर बंद नहीं होंगे, संयुक्त परिवार कभी नहीं हो पाएगा और बुज़ुर्गों का प्यार बच्चों को नहीं मिलेगा। ऐसी स्थिति में वृद्धाश्रम तो रहेंगे ही ! नई पीढी को किए गए अन्याय के लिए अब वृद्धों को यह पीड़ा भी भुगतनी होगी।"

एक ओर नज़रिये से देखें तो जस्सीभाई की बात कुछ हद तक सही लगती है। मगर सभी परिवारों की स्थिति और कारण भी अलग होंगे न? आख़िर हमारे ही बुज़ुर्ग दु:खी है, कहाँ जाएँगे वह? जिन्होने जीवनभर मेहनत करके अपने संतानों को पाला है और मुट्ठी में सुख के पतंगे लेकर उत्तरार्ध के लिए कुछ सपने देखे थे। अब समय आ गया है कि बुज़ुर्गों के साथ बैठकर युवाओं को सभी समस्याओं का हल निकालना होगा। सभी जाति के लोगों को कोर्ट के बजाय समझबूझ और कुशलता से समाधान करने चाहिए। हमारी संस्कृति को आत्मसात करके धर्मग्रंथों के आधार पर चलना होगा। बच्चों के साथ बच्चे बनाकर सभी को प्रेम-अमीरस पिलाकर पालना-पोसना होगा। अगर ज़रुरत हुई तो शिक्षा भले ही कम दे सकें मगर संस्कार के बग़ैर कभी नहीं चल पाएगा। बच्चों को हमारे ही घर के पालने में सूलाकर रस्सी से झुलाकर उसे लौरी सुनाने का वक़्त आ गया है। आइए, साथ मिलकर भौतिक सुख पर थोड़ी सी लगाम खींचे और मौलिकता को अपनाएँ। नहीं तो वृद्धों के लिए हमने ही जो वृद्धाश्रम बनाएँ है, वही द्वार हमारे स्वागत के लिए तैयार होंगे...!