दो- ग़ज़ल : संजय मिश्रा 'हबीब'
(1)
धू धू जलता हुआ जहां, अखबार उठाया तो देखा.
सुर्ख आसमां, गर्म फिजां, अखबार उठाया तो देखा.
चिथड़ा बचपन रस्ता-रस्ता, खुली हथेली लिए खडा,
बाल दिवस पर चित्र नया, अखबार उठाया तो देखा.
असासे मुल्क से संगे वफ़ा, जाने किसने खींच लिया,
चंद सिक्कों पर खडा जहां, अखबार उठाया तो देखा.
सूरत से इंसान सभी, सीरत की बातें बोलें क्या,
बेदार बिलखती मानवता, अखबार उठाया तो देखा.
इश्क खुदा है सूना कहीं था, खुदा खो गया देखा आज,
हर दिल में नफ़रत के निशाँ, अखबार उठाया तो देखा.
हबीब मेरा हाकिम हुआ, फरमान अजाब सा ये आया,
सच कहना भी जुर्म बना, अखबार उठाया तो देखा.
(2)
जाने कैसे वह दीवाना हो गया.
जिसे समझते थे कि सयाना हो गया.
दर्द सभी अपने छिपाते छिपाते,
दर्द का वह शख्श पैमाना हो गया.
ख्वाहिशे खैरअंदेशी ही ना रखो,
फिर ना होगा, वह बेगाना हो गया.
शम-ए-हकीकत में आज ख़्वाबों का,
ज़हां जला ऐसे, परवाना हो गया.
छा गईं घटाएं फिर यादों की हबीब
आँखों को बरसने का बहाना हो गया.
ज़ख्म - पंकज त्रिवेदी
यही ज़ख्म खड़े हैं झुककर यहाँ पर !
यह ज़ख्म भी बड़े शरारती हैं मेरे यार !
तुम्हारे न होने के बिच रुलाता है हमें !
गझल : दुष्यंत कुमार
तुम्हारे पाँवों के नीचे कोइ ज़मीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं |
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं |
तेरी ज़ुबान हैं झूठी जम्हूरियत की तरह,
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं |
तुम्हीं से प्यार जताएँ तुम्हीं को खा जायें,
अदीब वों तो सियासी हैं पर कमीं नहीं |
तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर,
तू इस मशीन का पुर्ज़ा है, तू मशीन नहीं |
बहुत मशहूर है आयें ज़रूर आप यहाँ,
ये मुल्क देखने के लायक तो है, हसीन नहीं |
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो,
तुम्हारी हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं |
(साये में धूप - से साभार )