ज़िंदगी की तेज़तर्रार रफ़्तार में
लोगों की भीड़ मैं दौड़ता रहा हूँ हरदम
शानों-शौकत है,
भीड़ रहती है आँगन में
तुलसी का पौधा है और आँगन में ही गुलाब...
लोग आतें है
ठहाके लगातें है, कुछ है आस लिए
पता नहीं, घर है या मयखाना मेरा
नशे में धूर्त रहता हूँ, किसी विचार पे
शब्द है और नि:शब्द कुछ पल मेरे
बेफिक्र हूँ, बदनाम भी -
धुंआ उठाता है, वक्त ठहरता है
कुछ लम्हें इसे भी है, जो देता है सुकून
उन ज़ख्मों को
जो भरकर भी उमदतें है बारबार सैलाब बनाकर
नींद उड़ जाती है
ओस बन जातें है अश्क...
कुछ लोग है
मेरे बेचैन दिल को,
ज़ख्मों को,
ज़हन में भरे उस बारूद को
भांपने का करतें है दावा
मगर, उन्हें भी दर है
चले जाते है वो भी
इसी आँगन से शब्द लेकर,
नि:शब्द होकर
जहां तुलसी का पौधा है और गुलाब का फुल
भी... !