कौन हूँ मैं...?
जो दिखता हूँ वो मैं नहीं
मैं वो इंसान हूँ -
जो प्यार करता है हर किसीको
न माँगा किसी से, कुछ भी, कभी भी
ज़िंदगी के हर लम्हें को उत्सव बनाकर
बांटता चलता था
मगर आसमान टूट पडा एक दिन....
वो आन, बान और शान
मानो भूकंप आया और सबकुछ ढ़ेर हो गया
मिट्टी के ढ़ेर से तो आदमी उठ सकता है
उठने की कोशिश लगातार...
उठता, गिरता, संभलता... फिर गिरकर उठता
अभी भी पूरी तरह कहाँ संभाल पाता हूँ
अपने आपको !
न आह, न चाह, न कोई शिकायत या न कोई
दायरा...
गिरने संभलने से कहाँ छूट पाया अभी तक ...?
लगता है सुबह होगी, जरुर होगी
साक्षात्कार होगा नवरश्मि का...