इंसान के भीतर सुख की अनुभूति हो तो उसे रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच बाँटने का सहज मन होता है उसी तरह कोई घुटन हो, संकट हो, तब भी भीतर दबी मनोवृत्तियों की घुटन को समझाने वाला कोई पात्र मिले तो क्या करें?

घुटन जब गले पड़ जाए तब बेचैनी होगी सीने पर बड़ा-सा पत्थर किसी ने रख दिया हो- ऐसा अनुभव होगा शरीर पसीने से तरबतर हो जाएगा साँस फूल जाएगी सिर्फ़ एक विचार हमारे समग्र अस्तित्व पर छा जाए, तो क्या होगा? गांधी जयंती प्रति वर्ष आती है और प्रजासत्ता का दिन भी गांधीजी की स्मृति हमेशा ज़िंदा रहे इस कारण खादी के वस्त्र लटके दिखाते हैं मगर वो सिर्फ़ वस्त्र ही हैं उसके बीच हैंगर की तरह लटकता आदमी गांधी नहीं है किसी के जैसा होना- यह हमारा वहम है उसके जैसा दिखने के लिए हम हवा में बकोटा भरते हैं और हाथ में आती है सिर्फ़ शून्यता फिर हथेली के बीच गहरी लकीर बन बैठी रेखाओं को घृणा से देखती हमारी नज़र कष्ट देती है क्या है यह सब ?

किसी की पहचान हो, उसके जैसा बनाने का सपना हो, कुछ पाने की अनवरत दौड़-धुप करें, विफलता मिले तब दिमाग़ को बम की तरह फोड़ देना हम जितना कुछ भी दौड़-धुप करते है, उससे बेसब्री का मृगजल कम नहीं होता किसी उद्देश्य को पाने का निर्णय जल्दी कर लेते हैं वहाँ तक पहुँचाने के लिएँ आत्मविश्वास के प्रति श्रद्धा की कसौटी होती है कभी तो हम मानो निर्बल बन जाते हैं जब तक कोई बात मन में स्पष्ट हो तब तक सर्कस के घोड़े की तरह हम गोल-गोल घूमते रहते हैं वह तो चाबुक के इशारे पे चलता है, मगर हम? भेद सिर्फ़ गाँव में जीने वाला प्राणी नहीं है, वह हमारे भीतर भी प्रवेश कर चुका है हम तो उसकी विरासत को संभाल रहे हैं किसी की मौज़ूदगी की क़ीमत नहीं और जो नहीं है, उनके बारे में अभिव्यक्ति का आसमान टूट पड़ता है और फिर लथपथ होकर ढेर हो जाएँ? वाह रे वाह !

गांधी-जयंती के दिन मेरे मन में ये पंक्तियाँ उभर आई थीं -

हाथ के पंजे पर
हरी नसों के गूंथे हुए जाले
अचानक धँस आते हैं बाहर,
तब... नववधू की तरह शरमा के
सिकुड़ता है मेरा
यह पेट !
उनकी नाभि में से अंकुरित होकर बाहर निकालने को व्याकुल है,
कमलदल
जिसमें बेचैन है
हमारा ब्रह्म,
हमारा भ्रम !!

गांधीजी अक्रीका से हिन्दुस्तान आए तब उन्होंने समग्र देश की स्थिति को प्रत्यक्ष रूप से जाना गांधीजी वहाँ बैरिस्टर थे, यह तो हम जानते ही है मगर "आझादी का विचार" मोहनदास करमचंद गांधी को अपमान रूपी थप्पड़ ने दिया कोई एक क्षण मानव के जीवन को परिवर्तन की निहाई पर चढ़ाकर आघात का हथौड़ा मार देता है फिर इंसान "स्व" को भूलकर "सर्वस्व" में विलीन हो जाता है जब हमारे ही अन्दर के "हमको-स्व को" विलीन करने की ताक़त पैदा हो, तब हमारा क़िरदार बदल जाता है कठपुतली के खेल से मुक्ति मिलती है आग में कूदने का जोश अंदर से प्रकट हो, उससे पहले के ज्वालामुखी के भभकते रोष की तरह यह हम में कब प्रकट होगा इसी का इंतज़ार करने की कायरता को ओढ़कर बैठा है हमारा मन ऐसा समयदाता बन बैठा ईश्वर अंजुलिभर आंसुओं से रोता है

हमारा अहंकार यमदूत की तरह सामने खडा हो जाता है, तब कुत्ता भी मर्दाना लगता है उसकी मर्दानगी वफ़ादारी के कारण है जो इंसान के स्वभाव से काफ़ी दूर है और हम पौरुषत्व को दो पैरों के बीच दबाकर दौड़ लगाते हैं जो है, उसे मूलरूप में देखने-पाने की बात दूर है भीतर तो दरापोकता ने डेरा डाला है उसे उखाड़ने की हिम्मत नहीं और हनुमान चालीसा को जेब में रखकर घूमते हैं वास्तव में वह शक्ति के लिए नहीं मगर समर्पण के लिए हो तो फल देगी जिन्हें किसी बात पर सिर्फ़ विचार ही नहीं करना है, अपने विचारों को सिर्फ़ सलाह के रूप में किसी के ऊपर ठोकना नहीं है, मगर सही समय पर सच्चे विचार को प्रकट करना है और समर्पित भी रहना है उनकी जेब में ही हनुमान चालीसा शोभा देती है।

भक्ति के नाम पर फ़जीहत नहीं, मित्रता के कारण मौत से जान लड़ाना, उसका नाम समर्पण है या भक्ति वानरों ने रामभक्ति ही की थी ? गांधी ने देश के लिए समर्पण किया, हनुमानजी ने राम के काज हमारे राजनेताओं की विरूपता तो देखो समर्थन के इशारे पर चलाती सरकारों के हाथ-पैर रस्सी और पेट गगरी जैसे हैं मतलब, प्रधानों के संख्याबल को देखने से लगता है की काम करने वाले कम और खाने वाले ज़्यादा गोधन को बचाने वाले शहीदों के स्मृति-स्तंभ अभी भी खड़े हैं गोईंडे में, और यहाँ तो प्रतिदिन मिलते हैं मानवभक्षी इंसानों के शरीर में बैठे शैतान शायद इसलिए ही अब जंगल के राजा (गीर के शेर) बेचैन होकर दिन--दिन इंसानों की आबादी पर हमला करते हैं वह भी अपने अस्तित्व की मोहर लगाता है ख़ास स्टाईल में आक्रमक होकर

हमारी घुटन पानी की लाइन में खड़ी है, मिट्टी के तेल या गैस की लाइन में खड़ी है बच्चों के एडमिशन के लिए डोनेशन देने को तैयार है जब बड़ी हो रही बेटी कुत्ते से चिपकी किलनी (कीड़े) जैसी दिखने लगती है तब घुटन भी बेचैन हो जाती है बेचैन घुटन हमारे गले में चिपक जाती है दुश्मन तो कभी मुक्त कर भी दे, घुटन नहीं दुश्मन हमें समझ सकें, छोटे से स्वार्थ के बलबूते पर शायद मदद भी कर दें किसी ने कहा है - "अरे भाई, यह घुटन यानी मेरे और आपके अंदर की रावणवृत्ति, गोडसे और दाऊदवृत्ति...." बस अब तो, मुझे भी घुटन...!!!