कितनी सूखी पडी है ये, आँखें देखो,
तरसती है अकाल भरे कूएँ की तरह...
ये पगडंडी है, जहां कदमों निशाँ तेरा,
बात हुई हुई, बिलखते रहे थे हम
यहाँ मंदिर है तेरा, उधर स्मशान मेरा
लोग कितने थे, राह दिखाने को मेरा
चले गएं हम तो, तेरे ज़हाँ से यूंही
लोग सोएं चैन से, तन्हाई में थे हम
29, अगस्त, 2010