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In:

स्‍वामी आनंद प्रसाद 'मानस'

परम पूजनीय स्वामीश्री 'मानस' के दो कविताओं में से एक कविश्री हरिवंशराय बच्चन के 'मधुशाला' का प्रतिकाव्य अपनी ओर से अलग ही ध्वनि को उद्घोषित करता हैं... उम्मींद हैं कि स्वामीजी के दोनों रचनाएँ आपको पसंद आयेगी | - पंकज त्रिवेदी

धूल का कण.....


धूल का कण सरक कर परों के तले,

उसका धीरता से यूं सिमटना, सुकड़ना और नाचना।

खिल-खिल कर करना उसका यूं अट्टहास,

क्‍यों नहीं आता उसको अहं से उठना।

क्‍या नहीं जानता क्‍या वह अपनी ताकत?

अपने बल के प्रदर्शन को अभी।

पर शायद नहीं चाहता वो ये सब

वो कैसा खिलखिलाता सा दिखता है

वो हवा के नाजुक पंखों पर बैठ कर,

बना देता है रेत के ऊंचे -ऊंचे पहाड़।

गर्म तपती हुई धूप में,

रात की सीतलता का करता है इंतजार।।

डूबते सूरज की सपाट,

सिमटती और सरकती धूप में,

वो सोने सा गर्वित दिखता है।

बसन्‍त की सुकोमल शान्ति में वो,

सीने पर कांटे उगा कर हंसता है।।

अषाढ़, के मेघों की गरजना में,

गुन-गुनाता है वो मेध मल्हार

रिम-झिम टपकता बूँदों में भी।।

कैसी नन्‍हें बच्‍चे की तरह ,

सुबकियां भर-भर कर नहाता है

इतरता और इठलाता सा

और कभी डरा सहमा सा दिखता है।।

हाएं ! देखो इस मनुष्य को

न जाने क्‍या हो गया है,

कहां खो गई है इसकी हंसी।।

कहां छिन गया है

तेरी आंखों का उल्‍लास,

कहां छुट गया तेरा उन्माद।।

और बिखर गई तेरी हस्ति

नहीं दिखती तेरे कदमों

में कभी मदहोशी

तेरे जीवन में कोई उत्‍सव

और तू कर रहा है अपने ही

विनाश का अह्वान

खुद आपने ही हाथों से

देख ले फिर से अपने कदम को एक बार,

क्‍या वो तुझे चला रहे है।

या तू घिसट रहा उनके पीछे....।।

ठहर जा, ठिठक जा और देख ले।

एक पल में सब बदल जाएगा।

बस तुझे रूकना भर है,

परन्‍तु तू शायद रूकना भूल गया है,

बस एक कदम अब नहीं आगे रखना,

इसके बाद तो पूर्ण इति है।

नहीं देख सकेगा तू पीछे चाह कर भी कुछ,

क्‍या समय देखेगा है पीछे मुड़कर कभी?

एक काली छाया निगल चूकि होगी इस धरा को,

इन सुरम्‍य गर्वित जीवन को,

केबल बचा होगा अन्‍धकार,

एक काल के गर्व में

केवल अन्‍धकार, एक प्रलय,

विभीषिका समेटे अपने आँचल में.......।।

(2)

एक जीवित मधुशाला-


प्रियतम तेरे सपनों की, मधुशाला मैंने देखी है।
होश बढ़ता इक-इक प्याला, ऐसी हाला देखी है।।

मदिरालय जाने बालों नें,
भ्रम जाने क्यों पाला?
हम तो पहुंच गए मंजिल पे,
पीछे रह गई मधुशाला।।

शब्दों कि मधु, शब्दों की हाला,
शब्दों की बनी मधुशाला।
आँख खोल कर देख सामने,
बरस रही अब वो हाला।।

धर्म-ग्रंथ भी नहीं जले जब,
कहां जली चित की ज्वाला।
मन्दिर, मस्जिद, गिरिजो मे भी,
कहां छलक़ती अब हाला।।

चख कर मधु को बुरा कहे वो,
समझे खुद को मतवाला।
आंखें बोले, तन भी ड़ोले,
पर मुंह पे पडा रहे ताला।।

होली आए या आये दीवाली,
भेद है क्या पड़ने बाला।
अंहकार को देख लांघ जा,
फिर भभकेगी वो ज्वाला।।

प्रियतम पिला रही है हाला,
फिर भी क्यों खाली प्याला।
प्यास बूझ गी जबी सुरा से,
बनेगा तु खुद मधुशाला।।


In:

एक बार फिर बापू याद आए- जया केतकी

देशवासियों ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को पुण्यतिथि पर याद किया, प्रतिवर्ष यही हैडिंग होती है अखबार में। पिछले कुछ वर्षों से युवाओं को शहीद दिवस भूल जाने के लिए दोषी ठहराया जाने लगा है। महात्मा गाँधी की समाधि राजघाट पर राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि अर्पित करने वालों की कतार में प्रायः वे ही होते हैं जिन्हें या तो कुर्सी की चाह या नेतृत्व की आस लगी रहती है। बडी संख्या में स्कूली बच्चे हाथ में फूल लिए खडे रहते हैं जिन्हें दुनिया की दोरंगी चाल का अंदाजा नहीं होता।

इस अवसर पर सर्वधर्म प्रार्थना सभाएँ और अन्य समरसतापूर्ण कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिससे भाईचारे और सद्भावना का संदेश फैलाने में सहायता मिले। इस अवसर पर कुष्ठरोग निवारण पखवाडे की शुरुआत भी की जाती है। इन सब के पीछे समाज के ठेकेदारों का मुख्य उद्देश्य जो भी हो पर मृतात्मा को शान्ति पहचाना कतई नहीं होता। हमारा ध्यान कुछ ऐसे सवालों की ओर जाता है, जो आज की नई पीढी के लिए प्रासंगिक होते हुए भी अनबूझे हैं। गाँधीजी को याद करते हुए कुछ लोग कहते हैं कि आज भारत को फिर से किसी गाँधी की जरूरत है। महात्मा गाँधी ने अपने जीवन काल में, अपने समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए जो कुछ किया, क्या आज की परिस्थितियों में उन्हीं सिद्धांतों और तरीकों को दोहरा कर वर्तमान समस्याओं का समाधान किया जा सकता है ?
मेरे मन में कई बार यह सवाल भी उठता है कि यदि आज गाँधीजी हमारे बीच जीवित होते तो क्या कर रहे होते ?
जैसा कि हम जानते हैं कि गाँधीजी अपने अंतिम दिनों में सांप्रदायिक हिंसा की विकराल समस्या से जूझ रहे थे और जब अथक प्रयासों के बावजूद देश के विभाजन को टाल पाने और सांप्रदायिक हिंसा की लहर को थाम पाने में वह विफल रहे तो गंभीर आत्ममंथन के दौर से गुजरने के बाद वह ब्रह्मचर्य के विशेष प्रयोग करने की तरफ उन्मुख हो गए। उनका मानना था कि उनकी उपस्थिति के बावजूद यदि भारत में हिंसा का तांडव रूक नहीं पा रहा है तो इसका अर्थ है कि स्वयं उनके भीतर अहिंसा फलीभूत नहीं हुई। इस समस्या का समाधान उन्हें ब्रह्मचर्य की सफल साधना में दिखाई दिया। उनके मन में यह पौराणिक धारणा पनप चुकी थी कि इन्द्रियों पर पूरी तरह से विजय हासिल कर चुके व्यक्तियों के समक्ष सिंह और मेमने साथ-साथ एक ही घाट पर पानी पीते हैं। इस धारणा से प्रेरित होकर अपने जीवन के अन्य प्रयोगों की शृंखला के अंत में उन्होंने ब्रह्मचर्य संबंधी कुछ गोपनीय प्रयोग किए, लेकिन इससे पहले कि उन प्रयोगों का निष्कर्ष वह स्वयं निकाल पाते और दूसरों को बता पाते, उनकी एक ऐसे शख्स ने हत्या कर दी, जो मानता था कि भारत में सारी समस्याओं की जड गाँधीजी ही थे।

फिर भी, गाँधीजी ने जिस नजरिए से अपने समय की परिस्थितियों का विश्लेषण किया और तत्कालीन जटिल समस्याओं के समाधान का मार्ग तलाशने की कोशिश की, उसका महत्व आज की विषम परिस्थितियों में भी बहुत अधिक है। २१वीं शताब्दी के इस मोड पर हम दुनिया को जिस दशा और दिशा में जाता देख रहे हैं, उसके पीछे अकेले गाँधी नामक कारक की भूमिका ऐसी है, जो शायद बीसवीं शताब्दी की किसी घटना की नहीं रही। कोई चाहे तो इस बात को इस प्रकार भी रख सकता है कि बीसवीं शताब्दी के घटनाक्रम ने मानव की चेतना पर जो गुणात्मक असर डाला, गाँधी उसकी चरम निष्पत्ति थे।

लेकिन क्या गाँधीजी की चेतना का असर अब इतना क्षीण हो चुका है कि वह काल और परिस्थितियों की सीमाओं के परे काम नहीं कर सके? क्या मानवता का भविष्य इतना निराशाजनक है कि फिर से कोई आम आदमी अपने जीवन की परिस्थितियों का ईमानदारी और दृढता से सामना करते हुए अपनी चेतना का विकास न कर सके ? सच तो यह है कि गाँधी की चेतना ने उन संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं जो मानवता का चिर प्रतीक्षित आदर्श रही हैं, जिसे आने वाली पीढयाँ वास्तव में साकार होता देख सकेंगी। मानवता के चिर-प्रतीक्षित आदर्श हैं - सत्य, प्रेम और न्याय। गाँधीजी मूलतः सत्य के शोधार्थी थे और अपनी शोधयात्रा में आगे बढते हुए उनके सामने प्रेम का आदर्श भी दिखाई दिया, जिसे वह अहिंसा के माध्यम से प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहे। भारत के इतिहास में पहली बार उनके ही नेतृत्व में ऐसा संभव हो पाया कि आम जनता ने स्वतंत्रता के मौलिक और जन्मसिद्ध अधिकारों को हासिल करने के लिए शासक वर्ग के विरुद्ध निर्भीक भाव से संगठित परंतु अहिंसक आवाज उठाई। यदि गाँधीजी आज जीवित होते, तो वह ठीक उसी प्रकार से वर्तमान शासन व्यवस्था के विरुद्ध व्यापक जनांदोलन चला रहे होते, जिस प्रकार ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध चलाया था। आज हमारे देश का राजनीतिक परिवेश और सामाजिक वातावरण भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता के अंध भँवर में लगातार फँसता जा रहा है, उससे मुक्ति दिलाने के लिए कई देशवासी फिर से गाँधी जैसे किसी चरित्र की जरूरत आकुलता से महसूस कर रहे हैं।

महात्मा गाँधी के जन्मस्थल गुजरात में भी शहीद दिवस पर अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। साबरमती आश्रम में प्रार्थना सभा का आयोजन किया जाता है, जहाँ से बापू ने १९३० में दांडी मार्च की शुरुआत की थी। सभी का मुख्य उद्देश्य यही कि देश उनके बताए हुए आदर्शों का भूले नहीं।
***
- जया केतकी

In:

मैं सत्य : भावना सक्सेना



क्या कहा-
पहचाना नहीं!
अरे सत्य हूँ मैं.............
युगों युगों से चला आया।
हाँ अब थक सा गया हूँ,
जीवित रहने की तलाश में
आश्रय को ही भटकता,
हैरान.........
हर कपट निरखता।

आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।

गाँधी से मिला मान,
गौरव पाया.....
रहूँ कहाँ......
जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को.....
एक और रपट बनाने को....
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।

चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।

मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में,बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल मिले सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।

In:

आवरण - ज्योत्सना पाण्डेय

जानती हूँ,

तुम्हारा दर्प
तुम्हारे भीतर छुपा है.

उस पर मैं
परत-दर-परत
चढाती रही हूँ
प्रेम के आवरण

जिन्हें ओढकर
तुम प्रेम से भरे
सभ्य और सौम्य हो जाते हो

जब कभी भी
मेरे प्रश्न
तुम्हें निरुत्तरित कर देते हैं,
तुम्हारी खिसियाहट
कोंचती है
तुम्हारे दर्प को
और उठ बैठता है
वह फुंफकार कर

केंचुली की भांति
उतरते जाते हैं
प्रेम के आवरण
परत-दर-परत

हर बार की तरह तुम
क्षण भर में ही

उगल देते हो
ढेर सारा ज़हर
मेरे पीने के लिए

इस बार मैंने
ज़हर के बदले ज़हर को
तो उगला है
ही अंदर समेटा है
नीलकंठ की तरह

ओढ़ लिया है
एक आवरण
मैंने भी
देखो !
मेरी आँखों में चमक है
और चेहरे पे मुस्कराहट...