सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर का "पृथ्वी थियेटर" जब घाटे में चल रहा था, उस वक्त की बात है । घाटे के कारण वह काफ़ी चिंतित थे। पृथ्वीराज की चिंता सिर्फ़ निजी नहीं थी। उन्हें थियेटर में काम करने वाले सभी टेकनीशीयनो की भी चिंता थी। उन्होंने कई लोगों के साथ चर्चा भी की। मगर कोई रास्ता मिला।

एक दिन वह कुछ लिखने बैठे थे। अचानक मन में एक विचार आया। दूसरे ही दिन विचार का अमल शुरू किया। जब भी कोई शो पूर्ण होता उसके बाद वह ख़ुद थियेटर के बाहर झोली फैलाकर बैठ जाते थे। उन्हें इस तरह देखकर सभी दर्शक कुछ न कुछ झोली में रुपये डालते थे।

एक दिन एक युवक आया और उसने मज़ाक़ के तौर पर झोली में मुट्ठी भरकर मिट्टी डाली। पृथ्वीराज ने उस युवक का हाथ पकड़कर कहा; "दोस्त ! हमारे वतन की मिट्टी का मूल्य तुम्हें शायद मालूम नहीं। हम सब इसी मिट्टी से पैदा हुए है। कृपा करके इस मिटते को झोली में नहीं, मेरे सर पर दाल दो। युवक तो उनका यह देशप्रेम देखकर भावुक हो गया और जेब में जितने भी रुपये थे वह पूरे झोली में डालकर चले गए। आज का ज़माना पूर्ण रूप से व्यावसायिक है। रुपयों के लिए राष्ट्रीयता के विरुद्ध लोग काम करते है। हमने इस देश के लिए क्या किया है? कुछ न कर पाए तो देश का सम्मान बढे, ऐसा व्यवहार और सोच तो ज़रूर रखे।


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