हाँ तुम जरुर आओगी....

मुझे वह सबकुछ याद है -

जो लम्हें तुम्हारे साथ बिठाये हैं

जिन्दगी की जिंदादिली, समर्पण और

वह जज़बाती आँखों की चमक...

मेरे आने पर तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा

आज भी नज़रों के सामने तैरता है

जैसे किसी झील में खिला सा कँवल का फूल

क्या तुम्हें आज भी याद है? -

तुम्हारे होंठ थिरकते थे, मेरे कदमों की आहात सुनकर

तुम्हारा जीवन आदि हो गया था,

मेरा एक लब्ज़ सुनाने को बेकरार,

और

मैं भी तरसता था... तुम्हारी मेहमान नवाजी को

कईं बार वह लब्ज़ मेरे होठों पर आते हैं

और फिर अचानक

वही होठों पर उसका अंतिम दम तोड़ देता है...

मैं जानता हूँ -

तुम्हारा कोइ दोष नहीं है

तुम तो झील में रह उस कँवल की तरह

होते हें भी

अपने आपको संभाल नहीं पाई

क्यूंकि -

झील में तो पानी होता है, मछलियाँ होती है

और सिवार भी...!

तुम

शायद उसी सिवार की शिकार हो गई हो

हो सकता है -

आज तुम्हारा पाँव फिसल चुका हो या..

एक दिन तुम्हें कोइ न कोइ

हाथ पकड़कर जरुर उठाएगा

या फिर

उसी सिवार की चिपचिपाहट से

उब जाओगी तुम...

और उस बंधन को तोड़कर बाहर निकालने का

प्रयास करोगी,

हिम्मत से, नेकी से, जज़बात से...

तब तुम्हें कोइ नहीं रोक सकेगा

क्यूंकि -

वह तुम्हारा, खुद का प्रयत्न होगा,

तुम्हारी अपनी समज होगी,

और -

तुम्हारे भीतर पडी वह खुद्दारी...

जो लोग अपने आप सोचते हैं

भला-बुरा भांप लेते हैं

और

अपने उसूलों से जीने की तमन्ना रखते हैं

वही निर्बंध होकर जीवन को पा सकते हैं

मैं तुम्हारे अंदर इंसानियत की वह लो

देखना चाहता हूँ

जो अपने आपको समजें, संभाले और

दूसरों को भी उजाला दिखाएँ

मैं जानता हूँ -

मेरे अरमानों की झोली में तुम्हारी और से

तोहफा तो ज़रूर मिलेगा,

मगर कब...?

यह प्रश्न सीमास्थाम्भ जरुर है -

मुझे इंतजार करना पडेगा

मुझे मालूम है -

न समय तय है और न तिथि...

बस- एक उम्मींद बाँध बैठा हूँ

जो दूरदूर तक एक दिए की तरह

टिमटिमाती हुई नज़र आती है मुझे

मैं उम्मींद पर अब भी कायम हूँ,

हाँ, तुम जरुर आओगी !

हाँ, तुम जरुर आओगी !