मानव के समग्र जीवन के दौरान हुए विविध अनुभव ही उनका तरकश है । जीवन में सर्वश्रेष्ट गुरु अगर कोई बन सकता है तो वह है हमारे ही अनुभव ! किसी अन्य व्यक्ति, साधु-संत के प्रति हमारी संस्कृति की परंपरा के अनुसार आदर-सम्मान ज़रूर हो । पूज्यभाव तो सिर्फ़ माता-पिता के प्रति हो और वह भी अंदर के भावों से सहज होना चाहिए । इंसान को अगर किसी का डर होना भी चाहिए तो सिर्फ़ दो तत्त्वों से ! एक अलौकिक शक्ति, जिसे चाहे हम माने या न माने मगर इस पूरे ब्रह्माण्ड का संचालन उनसे तो हो रहा है न? और उसे ही हम ईश्वर, अल्लाह, जिसस, वाहे गुरु जैसे विविध नामों से जानते है । उसी के डर के कारण हमने पाप-पुण्य के ख़ौफ़ को आगे रखा है । "डर" शब्द का उपयोग इसीलिए किया गया है कि उस अलौकिक तत्त्व के सामने इंसान हमेशा पंगु ही है । इस बात को चाहे हम न मानते हुए भी स्वीकार करते हैं । अस्वीकार की बातें करना हमारा अहंकार दर्शाता है । इंसान विज्ञान के ज़रिये चाहे कितनी भी खोज करके उस अलौकिक शक्ति से होड़ लगाए मगर भूकंप, सूखा और बाढ़ जैसी क़ुदरती आपत्तियों की भेंट देकर वह अपने संचालन को साबित करती राती है । ग्लोबल वोर्मिंग के लिए इंसान भी कम ज़िम्मेदार नहीं है । एक तर्क ऐसा भी है, इंसान बेचारा क्या करेगा, यह तो क़ुदरत की लीला है कि इंसान की बुद्धि भ्रष्ट हो रही है और वह क़ुदरत के ख़िलाफ़ व्यवहार करता है । हमारे भूगर्भ शास्त्री और ज्योतिषी चाहे कितनी भी घोषणा करें, क़ुदरत कहाँ मानने वाली ! आख़िर हम सबको उसी अलौकिक शक्ति के आगे घुटने टेकने पडते है न?

दूसरी बात है अपने माता-पिता से डरने की ! जिसके कारण ही इस धरती पर हमारा अस्तित्त्व है, उसका ऋण हम कैसे चुका पायेंगे भाला ! माँ की उस कोख की क़ीमत करने वाला हैवान हो सकता है, इंसान तो हरग़िज़ नहीं ! उनके द्वारा मिले शरीर, संस्कार और दुलार की क़ीमत तो देवता भी नहीं चुका सके, तो हम कौन है ? मार्क टवेन का यह विचार हमारी स्मृतियों को जागृत कर देगा । "जब मै चौदाह वर्ष का लडका था तब मेरे पिता इतने बेवकुफ़ थे कि उस बुढ़े के क़रीब मै मुश्किल से रह पाता । फिर मै इक्कीस का हुआ तब सात वर्ष में ही उस बुढ़े में कितना ज्ञान प्रकट हुआ, वह देखकर मैं अचंभे में पड गया !"

हम बड़े होने से पहले और बाद में अपने माता-पिता के प्रति जो कुछ भी सोचतें है, उसमें निरपेक्ष कितने होते हैं । इसका जवाब वक़्त के साथ जो अनुभव प्राप्त होते हैं उसके द्वारा ही पता चलता है । अन्यथा गुजराती कहावत के अनुसार "शेठनी शिखामण झाँपा सुधी" साबित होगी । हमारी मान्यता माता-पिता के सन्दर्भ में जो भी हो, उससे विपरित उनकी वेदना होती है । इंसान की चारों अवस्थाएँ पूर्ण होने का समय आ जाएँ तब वह सभी सवालों के जवाब जानने लगतें है, मगर उन्हें उस वक़्त कोई सवाल नहीं करतें । ऐसा व्यवहार बुढापे में माता-पिता के लिए कितना दर्दनाक होता है, इसका जवाब तो हम उनकी उमर के हो तब ही मिलेगा । रोबर्ट पोलोक ने कहा है; "पीड़ा का स्मरण वर्तमान के सुख को मीठा बनाता है ।"

बग़ैर पीड़ा का इंसान हो तो समझाना कि उसके पास धबकता हुआ हृदय नहीं है । दिमाग़वाला इंसान सोच सकता है, मगर अनुभावों के बग़ैर सिर्फ़ सोच से सुख-दु:ख का अनुभव कैसे होगा? हृदय तो इन्सानों को परस्पर जोडने वाला कच्चा धागा है ।

कई सालों पहले "आनंद" फ़िल्म देखी थी । उसमें राजेश खन्ना के द्वारा किया गया जानदार अभिनय आज भी आँखें भिगोता है । सड़क पर जाते जॉनी वोकर के पीछे दौडकर राजेश खन्ना उर्फ़ आनंद पीछे से हल्क़ी सी चपत लगाकर करता है; "ओ मुरारीलाल कितने साल बाद मिले?" जवाब में जॉनी वोकर भी ऐसा ही जवाब देतें है; " अरे जेचंद ! तुम कहाँ थे?" वास्तविकता तो यह थी कि इससे पहले दोनों एक-दूसरे से मिले ही नहीं थे ! बाद में राजेश खन्ना कहते है; "आपको देखकर ही शरीर में से एक वाईब्रेशन निकला, जो मुझ तक पहुँचा । मुझे लगा कि इस आदमी से बात करनी है । इसीलिए मैने बिना पहचान ही आपको बुलाया ।

यह कितनी अद्भूत बात है ! हम प्रतिदिन नियत समय पर किसी मार्ग से निकलते रहें, तब कोई दूसरी व्यक्ति भी हमारी तरह नियमित निकले तो क्या होगा? दिन-प्रतिदिन के इस क्रम के बाद हमारे शरीर से वाईब्रेशन निकलेंगे । जो उनके शरीर को कभी न कभी तो छुएगा ही ! बस यही वाईब्रेशन के कारण दो दिलों के तार जुड़ जातें है । अकारण ही दोनों में प्रसन्नता होगी । यह प्रसन्नता क्या है?

प्रत्येक इंसान प्रेम और मनोभाव को पाने के लिए प्रयत्नशील रहता है । जब किसी से नफ़रत करता है तो उसकी नींव में भी प्यार पाने के लिए किए गए संघर्ष कई विफलता ही मुख्य कारण होता है । यानी प्रेम और भावानाएँ तो केन्द्र में ही होती है । इंसान को भौतिक सुविधाओं की तब ज़रूरत होती है, जब वह मानवीय संबंधों से अलिप्त होने लगता है । इंसान जैसे-जैसे भौतिकता की ओर भागता है तब उनका मकान बड़ा बनाता जाता है, फ़र्नीचर भी बढ़िया सजाता है । मगर इंसान के हृदय में कोई ख़ास सजावट नहीं होती । परिणाम स्वरूप इंसान संवेदना ही खो चुका है । यही से ही इंसान के जीवन में शोषण युग का आरंभ होता है । उस वक़्त सिर्फ़ भौतिकता के माध्यम द्वारा वह इंसान कईंयों के अरमानो को कुचलाने लगता है, किसीकी प्रगति के गले को घोंटता है और क्रूर आनंद लेता है । विलियम्स बलेक के इन् शब्दों की याद आती है - "अति दु:ख हँसता है तो अति आनंद-आक्रंद करता है ।"


जब दु:ख से इंसान आदती हो जाए तब वह हँसने लगता है । आनंद जब खोखला बन जाए तब ही आक्रंद करता है । हमें भौतिक और आन्तरिक सुख में से किसी एक को चुनाना है । मगर आजतक तो सोचा ही नहीं ! दौड़धूप की ज़िंदगी में फ़ुर्सत ही कहाँ ? परिवार के सदस्यों के साथ घुलमिलकर रहने का मन है, मगर दस-पन्द्रह कमरे वाले मकान के कोने में छुपकर बैठी अलग-अलग व्यक्तियों के भीतर दबे अकेलेपन की पीड़ा कौन जाने? इंसान को मकान बड़ा-सा चाहिए मगर "घर" के बारे में कोई नहीं सोचता । एसे विचार हृदय को स्पर्षता है तब अभिगम में बदलाव आता है । हमारा अभिगम, व्यवहार जितना शुद्ध-सात्विक होगा उतना ही अन्तर में उजास होगा, आन्तरिक चेतना प्रज्वल्लित होगी ।

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