मारी संस्कृति के व्यापक विषयों में पान खाने की परंपरा और महिमा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग है। किसी की पान खाने की इच्छा को रोकना, वह तो पान प्रेमियों के हृदय पर वज्राघात करने जैसा ही कार्य है न? पान की महिमा का उल्लेख हमारे लोकजीवन में भी देखने को मिलता है। गुजराती कवि स्वर्गीय रमेश पारेख के एक गीत में पान का सन्दर्भ बनारस के साथ कैसे जुड़ा है, देखें;

"शेरीना छेड़ा पर पाना नी दुकान
पान चोपडावे प्रीतम हमार..."

नुक्कड़ पर पान की दुकान और पान में रसपूर्वक चूना-कत्था ध्यान से लगावाने की उत्सुकता साभार प्रीतम की कल्पना ही किटानी रोमान्चक है ! एक पुराने गीत की याद आती है;

"पान खाएँ सैंया हमारो,
साँवली सूरत और होठ लाल लाल... "

पान खाने में कोई ऊँच-नीच का भेद नही होता। पान तो हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। पान की लालिमा सिर्फ़ बनारस तक ही सीमित नही है, बल्कि वह तो हमारी राष्ट्रीयता के रागों में भी घुलमिल गई है। बदलाते समय के चलते हमारी युवा पीढी पान की सात्विकता से विमुख होकर गुटखा खाने की आदी हो गई है, जिसमें सड़ी हुई सुपारी के साथ सुगंधी द्रव्यों का मिश्रण भले ही ललचाए, मगर उनके विकृत परिणाम हम सब भुगत रहें है। पता नहीं, हमारे युवा बर्बादी के मार्ग से कब लौटेंगे? पान तो क़ुदरत की देन है, उसे गुटखा-तम्बाकू के मिश्रण के बग़ैर भी खाया जा सकता है।

पान का तो हमारी संस्कृति और परंपरा के अनुसार पूजा-पाठ में भी उपयोग होता है। जिस तरह पान की लिज्जत का आनन्द आता है, उसी तरह पान के बारे में जानकारी प्राप्त करना भी रसप्रद होगा। किसी भी शहर में जाकर किसी का भी पता पूछना हो, किसी की जानकारी प्राप्त करनी हो, क्रिकेट, शेयरबाज़ार या कुछ भी... हम बेफ़िक्र होकर पान की दुकान पर पूछ सकतें है। गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में "पानानो गल्लो" कहते है। हिन्दुधर्म के हवेली संप्रदाय के कृष्णभक्तों के प्रासाद में पान का बीड़ा दिया जाता है। तो राजा-महाराजाओं के ज़माने में किसी भी चुनौती के लिए सभा के बीच, बडे से थाल में पान का बीड़ा रखा जाता था। जो आदमी उस चुनौती का स्वीकार करना चाहता, वह भरी सभा में पान का बीड़ा उठाकर खा जाता। हमारे इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मौज़ूद हिम और उन पर कई लडाईयाँ तथा लोककथायें भी !

गुजराती में एक पहेली प्रचलित है ;

"कोणे हिमालो सेवियो, कोणे सेवी आज?
कोणे करावत मूकावी, कई राणीने काज?

जवाब है :

काथे हिमालो सेवियो, चुने सेवी आज
सोपारी ए करावत मूकावी, नागरवेल राणीने काज !

मतलब कि हीम जैसे ठंडक कत्थे से, चुने की आज, करावत से सुपारी कटती है और नागरबेल राणी के लिए सबकुछ किया जाता है !

पानवाले को तंबोली कहतें है। कई वर्ष पहले गुजरात के राजकोट शहर में एक पान की दुकान का नाम "भूत ताम्बूल" था। उस दुकान में काले-सफ़ेद रंगों का ही प्रयोग किया गया था और उसके मालिक किसी हॉरर फ़िल्म के विलेन जैसे दिखते थे। अनुभवी पानवाले सुबह से शाम तक कम से कम दो सौ- तीन सौ से ज़्यादा ग्राहकों के विविध पान को सहजता से याद रख सकतें है । ग्राहक को देखते ही वह पान बनाने लगते हैं।

गुजराती भाषा के आद्यकविश्री नरसिंह मेहता की नागर जाति में पान अतिप्रिय होता है। उसमें भी महिलाएँ शाम के वक्त तैयार होकर घर की ऊँची पगथार पर बैठकर पान की लिज्जत में दूबी देखना तो सौभाग्य की बात होती है। सुरेंद्रनगर में शक्ति पान वाले शैलेश हीराभाई ने बताया कि एक महिला ग्राहक ऐसी है , जो प्रतिदिन सुबह-शाम को ख़ास ब्राण्ड की तम्बाखु के साथ पान ले जाती है। आश्चर्य की बात यह है कि उनका पति साथ आता है मगर वह तो धनियादाल भी नही खाता। दिव में सेवन स्मार्ट ब्रदर्स है। उनके पिता 96 वर्ष होने के बावजूद तम्बाखु वाला पान खाकर चौथी मंज़िल पर रात को सोने के लिए जाते हैं। भावानगर में तुषार शाह धनियादाल-तम्बाखु वाला पान खाते हैं।

पान के वैसे कईं प्रकार हैं। जिसमें मुख्यत: बनारसी, कलाकत्ती, बंगलो, कपुरी, काला, कच्चा और पक्का पान मुख्य है। बनारस में तांबे की बादी तश्तरी में लाल उपरने से ढककर पान को रखा जाता है। कई जगह पत्तर या एल्युमिनियम के ट्रे अथवा तांबे-पीतल और मिट्टी की कुल्हीयाँ तथा सण के बोर के गीले तुकड़े लपेटकर रखा जाता है। पान के अंदर रखे जाते द्रव्यों में भी विविधता होती है। कुछ जगाहों पर हनीमूं पान दो सौ ईक्यावन रुपये में मिलता है तो दिल्ली के दरियागंज में प्रिन्स पान सेन्टर में एक हज़ार रुपये का पान मिलता है। जिसे "वेडिंग पान" कहतें है। मगर एक विदेशी पर्यटक ने उनके पुस्तक में भारत के दौरे के बाद दिल्ली के उस पान का ज़िक्र करते हुए उसे "बेड ब्रेकर" का नाम दिया है। उनके द्वारा किए गए संशोधन के आधार पर उस पान में हीपोपोटेमस के शिंग का चूरा, कोकेईन, ओपियम की गोली, सोने का वरक - जैसे शक्तिवर्द्धक द्रव्यों का उपयोग किया जाता है। जो शादी की पहली रात को दुल्हे के पर्फोर्मंस के लिए वियाग्रा से भी ज़्यादा असरदार साबित होता है। बिहार में पापड की तरह ज़ल्दी टूट जैन एसे कडक पान खानेवाले लोग ज़्यादा है।

मगर चिन्ता आज के युवाओं की है। जो सिंगार के धूएँ में घुटते हुए नज़र आते हैं और गुटखा के गुलाम बन बैठे हैं। उस से भी आगे सिंगार की तम्बाखु निकालाकर उसकी जगह ड्रग्स को भरकर उसके नशीले कस खींचने में युवाधन ख़ुद ही खींचे जाते हैं। हमारे स्कूल-कालेज़ों में मुक्त सेक्स एज्युकेशन की भी बातें छेड़ी गई थी तब केरल के शिक्षकों ने बीभत्स अभ्यास क्रम को पढ़ाने का विरोध किया था। सेक्स तो पान चबाने जैसी कुदरती क्रिया है, उसे क्या सिखाना? बच्चों को भूख लगे ऐसी सहज प्रक्रिया है। पृथ्वी के आरंभ में किसने किसको सिखाया होगा? नशीले पदार्थ के बग़ैर सात्विक पान भी खाया जा सकता है, उसमें गुटखा की क्या ज़रूरत ? स्कूल-कलेज के पास गुटखा बेचने पर प्रतिबन्ध है मगर भविष्य की पीढी तैयार करने वाले शिक्षक ही उस फतावे को चबा जाएँ तो क्या होगा इस देश का ? आनेवाली नश्ल को तंदरुस्त बनानी है तो क़ायदे बनाने के साथ-साथ ठोस अमल भी तो होना चाहिए न? गुटखा बनाने वाली कम्पनियों को अलीगढ़ का ताला लगाना चाहिए। मगर चुनाव के वक़्त ऐसी कम्पनियों से तो विविध राजकीय पक्षों को चन्दा मिलता है न!

हमारे जीवन का मर्म युवा पीढी को समPeने के लिए कितने प्रयत्न करने होंगे, भाला ! हमारे इस दर्द का हल कैसे ढूँढे ? पान-गुटखा का कोकटेल करके खाने वाले एक डॉक्टर हाल ही में कैंसर से जूझते नज़र आएँ है। एक स्कूल की प्रिंसिपल को मज़े से गुटखा चबाते मैंने देखा है। आजकल के ज़माने में धनवान ही नही, बल्कि मज़दूरी करने वाली औरतें भी इन्हीं व्यसनों की शिकार हैं। महिलाओं को 33 प्रतिशत का दर्जा दिया गया, ये तो शक्ति कि पूजा है, मगर वोही गुटखा, शराब और सेक्स के लिए कुछ भी करने को तैयार है। तभी तो गिगोलो का अस्तित्व है न !

पान के बारे में मज़े की बात यह है कि कर्नाटक के कसरागौड से केरल तक के क्षेत्र में सुपारी का उत्पाद सबसे ज़्यादा होता है, फिर भी वहाँ सुपारी बहुत ही कम मात्रा में खाई जाती है। सुपारी को विशिष्ट तरीक़े से काटी जाती है। इन्दौर में एम.जी. रोड पर सम्राट होटेल के पास ही समग्र भारत् का एकमात्र शो-रुम सुपारी का है। जिसमें क़रीब डेढ सौ प्रकार की ख़ुश्बूदार, विविध रंगों और आकारों वाली सुपारी मिलती है। जो मक्खन-घी में फ्राय की जाती है। सुपारी की स्लाईस, रफ्फ़, सेवर्धन, चुरा, टुकड़ा - जैसे कटिंग होता है। पान और सुपारी की बात ही तो सरौता को कैसे भूले? गुजरात के सौराष्ट्र-कच्छ में तो अन्जार शहर के छोटे-बडे नक्काशीदार, मीनाकारी वाले सरोते का गज़ब का आकर्षण न सिर्फ़ हमारे लिए बल्कि विदेशी पर्यटकों के लिए भी है। जिसमें मोर-तोता के आकार और छोटी-सी घंटियाँ भी लगाई जाती है।

लड्डू खाने के लिए ज़्यादातर ब्राह्मण अग्रसर होते हैं। सौराष्ट्र में तो हलवद, राजकोट और मोरबी जैसे शहरों में लड्डू भोजन की होड लगाई जाती है। और ईनाम भी बडे-बडे ! उनमें हलवद के ब्राह्मणों की छवि तो सबसे बढिया है ! पुराने लोग डिसी तम्बाखु-चूना का सेवन करते थे । पान मे देसी तम्बाखु का सेवन करने से भारी भोजन भी हजाम हो जाता है और चुने से केल्शियम मिलता है, जो दान्तो को मज़बूती प्रदान करता है। पान हमारी सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है, जो हमारे धर्म और समाज के साथ्आदिकाल से जुड़ा हुआ है। वह प्रकृति का प्रतीक है और प्रकृति तो सात्विक होती है। हम भी ऐसी सात्विकता के साथ् पान लुत्फ़ ऊठाएँ तो जीवन का मर्म ज़रुर पकड पायेंगे। बशर्ते, हमारा नज़रिया साफ होना चाहिए, है न...?