Posted by
Pankaj Trivedi
In:
मन के द्वार से...
इंसान
ये आसमान देखा होता या होते पाँव ज़मीं पर,
कौन सोचता यहाँ मुसलमाँ और हिन्दू ज़मीं पर
*
*
फट जाएँगी धरती, टूट पडेगा आसमाँ,
फिर कौन रहे यहाँ हिन्दू या मुसलमाँ
This entry was posted on 7:49 PM
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मन के द्वार से...
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ये तेरा हे,ये मेरा हे करता हे,
अंत मे कुछ नहीं .
बहुत सुंदर विचारोंकी माला हे०००००००००००००००००
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
काव्य प्रयोजन (भाग-१०), मार्क्सवादी चिंतन, मनोज कुमार की प्रस्तुति, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
सुन्दर और शुभ विचारों की माला !
कल्पना जी, आपकी बात सही है, कुछ हमारा नहीं और कोइ हमारा नहीं, फिर भी क्यूं इतनी जद्दोजहद... ! नासमज़ी की भी कोई हद होती है न ?
राजभाषा तो हमारी अपनी है, जरुर देखूँगा | यहाँ तक आने के लिएँ शुक्रिया |
अपर्णा, यही सुंदर विचारों की माला के मोती हैं हम सब !
फट जाएँगी धरती, टूट पडेगा आसमाँ,
फिर कौन रहे यहाँ हिन्दू या मुसलमाँ....
सनातन सत्य की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...प्राकृतिक आपदाएं हिन्दू और मुसलमान में कोई फर्क नहीं करती और म्रत्यु के बाद न कोई हिन्दू होता है न मुसलमान .....कब हम धर्म के झूठे आडम्बरों से ऊपर उठेंगे?.....आभार...
बहुत ही अच्छी रचना, पर समझे कौन ?
कैलाश चन्द्रजी और कुसुम जी,
आप दोनों का धन्यवाद | स्वागत
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