इंसान जब भी घर से बाहर निकलता है तब चेहरे पर मोहरा पहनके निकलता है पडौसी मिलता है नुक्कड़ पे, पान की दूकान पर मिले कोई मित्र और रास्ते में मिले कोई कोई नवयौवना... इंसान मुस्कुराता हुआ जाता है बातें करता, मस्ती करता हुआ जाता है इंसान जा रहा है अपने कारोबार पर...! इंसान जा रहा है और उनके मन में तो चलता है कई विचारों का द्वंद्व और इंसान लाचार होकर उसी भँवर में घूमता रहता है

इस शहर में, प्रत्येक शहर में इंसान है, उसका जीने का अलग अंदाज़ है । उनका अलग स्वभाव, अलग मिज़ाज़, अलग नज़ारा और अलग दर्द है । प्रत्येक इंसान अलग-अलग है । इंसान प्रेम है, नफ़रत है, आँसू है, भभकता हुआ ज्वालामुखी है और वही इंसान मछली जैसा चंचल है । अरे भाई, इंसान आख़िर तो इंसान ही है न? इंसान के अलग रंग-रूप है इसीलिए वैविध्य भी है, उनकी अलग जाति-धर्म है, इस कारण भी इंसान अलग है । इन सबके बीच इंसान हँसता और प्रिय लगता है । वास्तविकता यह है की इंसान नहीं मगर उनका मोहरा हँसता है । हम एक-दूसरे को पहचानने का दावा करते हैं । सुखी-समृद्ध जीवन के सपने देखते हैं और उसे साकार करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । हम किसी को हँसाते रहते है, ख़ुद भी हँसते हैं । हमारी आवाज़ हमें किसी ऐसे व्यक्ति की तरह नहीं सुनाई देती या उसका अनुभव हम मूलरूप में नहीं कर पाते । शायद इसीलिए हमारी आवाज़ को सुनने के लिए हमें "भीतर के साथी" का सहारा लेना पड़ता है । वह आवाज़ सुनाई दे तब उसमें सच्चाई की रणकार सुनाई देती है और मनमंदिर में घंटारव होता है । यह रणकार जब कमज़ोर लगे तो समझना की हमारी आवाज़ को छाले पड़े हैं ।

समाज में सभी इन्सानों का अलग व्यक्तित्व होता है, पहचान होती है, उम्र होती है और इसलिए वह सरेआम आँसू नहीं बहा सकता ! जो चाहता है वह दिल खोलकर बोल नहीं पाटा । पडोसी मिले तो बिना कारण हँसना पड़ता है । उन्हें पूछना भी पड़ता है - "आप कैसे है ?" अथवा उसी प्रश्न के प्रत्युत्तर में कहना पड़ता है - "जलसा !" इंसान सचमुच जलसा करता है? चेहरे पर लगाया हुआ मोहरा खोखले समाज के सामने एक व्यक्ति के रूप में भले पहचान बनाए, मगर शाम होते घर लौटा इंसान ज़िम्मेदारी के ओढ़ने के नीचे दबा हुआ लुढ़क जाता है । उनके आसपास परिवार है, समाज है, नौकरी है, कुछ करने की प्रबल चाहत है, हिम्मत है, पुरुषार्थ है, फिर भी उसमें मौलिकता का अभाव देखने मिले तो क्या समझना ? संभव है कि पूरे दिन में कोई उत्तम कार्य किया हो तो उसी की उष्मा में इंसान चैन की नींद ले पाए । टेंशन नहीं लेने का, क्या? - ऐसा कहना सरल है मगर जीना ? "जैसे जिए ऐसा ही कहें, जैसा कहें ऐसा ही जिएं " - यह विधान हमें हल्क़ा-फुल्का बना दें ऐसा भी हो । आकाश की तरह असीम बना दें ! संभव है, पीड़ा में से पनपने की दृष्टि दे ! प्रेम से पुरुषार्थ को लेकर चलना सिखाएं और प्रारब्ध के सहारे परम तत्त्व की भेंट भी करवा दें !

इंसान के पास समय नहीं है । मनुष्य को प्रकृति पसंद है मगर शहर की ज़िंदगी सीमेंट की तरह गाढ़ी हो गयी है, इसिलए प्रकृति की ख़ुशबू का अनुभव नहीं कर सकता । उसके कान आवाज़ के प्रदूषण से दूषित है इसीलिए भँवरे की गुंजन उसे सुनाई नहीं देती । बात तो सही है मगर एक रास्ता है । शहर की सड़कों पर पेड़ों के बदले कमर्शियल मॉल की छाँव भले हो, फिर भी आकाश अभी भी खुला है । आकाश को देखने के लिए प्रेम चाहिए, दंभ नहीं ! इंसान के पास समय का बहाना है, प्रेम की उष्मा फ़ैक्ट्री और वाहनों के धुंए में घुलकर ज़हर बन गयी है । इस कारण आकाश को ध्यान से देखने का मन नहीं होता । आकाश के विविध स्वरूप को पाने के लिए पूरी ज़िंदगी कम पड़े । प्रत्येक क्षण पर आकाश का मिज़ाज़ बदलता है । बादलों के आकार, सूर्य की रोशनी और उन दोनों के बीच आँखमिचौली के खेल से प्रकटते रंगों का वैविध्य, उसका प्रकाश, स्वस्थ होना है तो एकाग्रता से प्रकृति की इस परम घटना का साधना के स्तर तक आराधन करने का धैर्य चाहिए । प्रकृति को आत्मसात करते रहने से निजतत्त्व में अपने आप परिवर्तन आएगा । उससे हमारी चेतनात्मक क्षितिज का विस्तार बढ़ेगा और चक्षु से दिव्यचक्शु की महिमा चैतन्य के दर्शन करवाएँगे । जो कार्य हमारे धर्मग्रंथ करते है वही कार्य आकाश की असीमता और उनके रंग-आकार भी करते हैं । सिर्फ़ हमारी एकाग्रता और श्रद्धा कम पड़ती है, उसका क्या ? जिस तरह किताब में छपी बात को मूल परिप्रेक्ष में समझनी होगी तो हमें आकाश की भाषा को भी समझनी होगी ।

इंसान घर के बाहर निकलता है वही स्वरूप में घर नहीं लौटता । वह बाहर जैसा दीखता है ऐसा घर में नहीं होता । घर की बातें ज़ाहिर नहीं कर पाता । इंसान में प्रतिपल परिवर्तन होता है । बदलना पड़े वह इंसान की करुणा है। आज का इंसान बचपने में नहीं जी सकता । परिणाम स्वरूप उसकी वृत्ति और वृद्धि में बढ़ावा दिखाई देता है ।

आज का बचपन फ़ास्टफूड का है इसलिए उसे चंदामामा की कहानियाँ अच्छी नहीं लगती । शायद, उसके माता-पिता को भी नहीं आती ! तो उसे भला मामाजी का चेहरा कहाँ दिखेगा? अब दादीमाँ या दादाजी तो वृद्धाश्रम की शोभा बढ़ा रहे हैं । बच्चों को उनकी शिथिल-लचीली त्वचा का स्पर्श मृदु कैसे लगे, भाई ! रामायण-महाभारत या श्रवण-प्रहलाद की कहानी उसने नहीं सूनी । उसे ध्रुव तारे की जानकारी तो होगी नहीं ? दादीमाँ के चेहरे पर की गहरी रेखाओं में न जाने कितनी बातें अंकित हुई है, उसकी जानकारी देने का भी समय नहीं है । बुजुर्गों के पैर छूकर प्रणाम करने का विवेक भी नहीं रहा । हाँ, हमारे बच्चे को बर्गर, पित्ज़ा, मोबाईल और मोल में से फ़ुर्सत कहाँ? मल्टीप्लेक्स और डांसबार का कल्चर विविध प्रकार के डे पर ज़श्न मना रहे हैं । यह बच्चा या युवक हमारे ही समाज का इंसान है । जिसकी परवरिश फ़ास्ट लाईफ़ में फ़ास्ट तरीक़े से हुई है न भाई !

मैंने गाँव देखा है, बेलगाडी देखी है और हरियाले खेतों में लहलहाते गेहूँ के भुट्टे तोड़कर होला खाया है । मेरे पास अभी भी प्रकृति की पूंजी अकबंध है । मेरी नौ वर्षीया छोटी-सी बेटी के बाल संवारकर, उसमें आँगन में खिल गुलाब के फुल से शोभा बढ़ा सकता हूँ । उसका हँसता चेहरा मुझे दादीमाँ की याद दिलाता है । कभी-कभी बाल सँवारते समय एकाध ज़ुल्फ़ सरक जाए तब बेटी मीठा उपालंभ करें; "क्या, आप भी पापा...! लाईये मैं ख़ुद ही संवार लूँ... !" तब आँखों की नमीं से उसे देखूँ तो लगता है, मानो मेरी बेटी बड़ी हो गई है...! वह मुझे छोडकर चली जाएगी यही डर से आँसू के धून्धलेपन के बीच देखाकर उसे कहूँ; "अब तेरी जुल्फ़ नही निकलेगी बेटा, मैं ध्यान रखूँगा..." इतना कहकर उसे मेरे साथ खाना खिलाकर स्कूल तक छोडने के लिए मैने अभी भी अपना समय बचा रखा है । मेरी बेटी मेरा आ...का...श..... है ।

हाँ, मैं भी इंसान हूँ । मोहरे तो ढेर सारे पडे है ! मगर एक भी मोहरा रास नहीं आता मुझे । क्योंकि मेरे पास हरा-भरा खेत है, गुलाब है, चंदा है, तारे हैं और सूरज है, आकाश है और बादलों का ढेर है...।

हाँ, इंसान क्षणिक वैराग्य का जोगी बनाकर सब कुछ प्राप्त करने का संतोष मानकर घूमता-फ़िरता है । जोगी के स्वरूप में रहे ख़ुद के बचपन को खो चुका है इंसान, इसीलिए तो वह मोहरे पहनकर भटकता रहता है डगर-डगर ! बचपन तो एक्य से ऐश्वर्य प्राप्त करने का आरंभ है । जीवन वहाँ से तो शुरू होता है न ! व्यस्तता के बीच मिलन और जुदाई का एक दौर चलता है । उसमें ही हँसना और रोना होता है । बचपन से वृद्धत्त्व की यात्रा में इंसान को सोचना है, विकसित होना है, बिलासना है और बिहरना है । यह प्रक्रिया हमारी नियति है । लम्बे से जीवन में सुख-दुख के बादलों के बीच भी संभावनाओं का सूरज तप्त है । अनन्त आकाश हमारे सामने फैला हुआ है, हमें उनसे पूर्ण आज़ादी मिली है ।

इंसान घर से बाहर निकलता है । शायद, उसे अब मोहरे की ज़रूरत नहीं लगती ! पडोसी मिले तो सहजता से हँस लेता है । दोस्तों को खुले मन से मिलता है और नवयौवना को देखकर बिना क्षोभ से आँखें नचाकर मीठी मुस्कानें बिखेरता है । यह सब अच्छा लागता है सभी इंसान को...! अब इंसान के पास ख़ुद का समय भी है । वह घर-परिवारों में सबको मिल-जुलकर ख़ुशी देता है । उनके पास खुला आकाश है । अब वह जीवन को समझ सकता है और मर्म को भी समझ सकता है...! क्योंकि उसके मन का द्वार खुल गया है...!