शा
म के वक़्त घर पे अकेले मत रहा करो" - ऐसा कहीं सूना-पढ़ा उससे पहले काफ़ी समय से वह अनुभव था । शाम किसी अजीब सी नमी भरी उदासी लेकर उतरती । हम कहीं भी स्थिर नहीं होते । "चले जाएँ .... चले जाएँ... " होता रहे । ऐसे समय आसरे का ठिकाना - बोरतालाब । दूसरा यह खोदियार मंदिर बोरतालाब गाँव के बीचों-बीच, इस कारण कईयों के बीच अपना निजी अकेलापन ढूँढ लेना पड़े । होता है... तालाब तो हाथ हिलाता रहे । मगर फेरी करनेवाले, बेंच पर बैठे प्राणीजन, ईवनिंग वॉक करनेवालों की चलते चलते होती सांसारिक बातें- ऐसा सबकुछ दीखता दुनियावी हो ! इसलिए कुछ समय से बोरतालाब की शाम का स्थान इस छोटे से मंदिर ने लिया है गाँव से दूर । सीमा में । छोटे से चेकडेम के किनारे । अकेला मगर अकेलापन वाला नहीं ऐसा यह मंदिर मेरी की शामों का साथी । आता... बैठता, आरती होने तक कभी पानी में पड़े-पड़े शाम को "फ़ील" करता, कभी किनारे बैठकर आँखों की ज़ियाफ़त । झीलता, झील पाटा जैसे अर्थाकलापों को समझाने मथता रहूँ ।

कहनी ही है तो बरसाती-गीली शाम है । घंटेभर पहले धीमी धार से बरस चुका है महाराज ! क्षितिज चारों और काली भुजँग है अभी । काले बादल किसी आयोजन करने में पड़े हैं मगर उस काले आक्रमण में से सरककर निकल चुका उजास है आसपास । घिरी हुई, गाधी, पढ़ पाओ तो पढ़ लो ऐसी शाम । चेक डेम का पानी किनारे की हरियाली और ऊपर आकाश के रंगों को मिलाकर कुछ 'रच' लेने की धुन में है । पानी की सतह हरी-भरी है । दूर टीकावाली बतख़ धीरे धीरे सरकी और जो कंपन फैले वह यहाँ आकर मुझे स्पर्शता है । पानी की भीतर से कुछ-कुछ देर में उठाता साँप का सर जल की सतह को तोड़ दें । पवन अपना काम करें । किनारे के पेड़ भरपूर नशे में भरपूर पीकर गहराई तक उतर गए हैं । पिछले वर्ष एक लडके को भक्षण कर गए डेम का यह पानी शिकार निगलकर पड़े हुए मगर जैसा भयानक लगता था

आज, सारस पंछी की फैली हुई पंख जैसा रमणीय ! है न यह भी स्थिति भेद ! सोलह-सत्तर जितनी नीलगायों का झुण्ड देखो सामनेवाली झाड़ी में से निकला । यह उनका रोज़ाना समय । अब पहचान पक्की होने लगी है इसलिए कुछ देर मेरे सामने हटकर देखेंगे और फिर निकल जाएँगे, उदर तृप्ति अर्थ में ।

चेकडेम के ढालान पर से अधिक पानी कल-कल शोर करता हुआ बहा जाएँ । उस के प्रवाह के जोश में कुछेक मछलियों को देशाटन मिले । अनिच्छा से प्रवाह में बहाने के बाद फिर शुरू किया प्रयास । प्रवाह से विपरीत ढालान चढ़कर ऊपर आने का ! अजब उत्कंठा (उत्सुकता) से मन उनका यह प्रचंड उद्यम का गवाह बन जाऊँ । नीचे भरे हुए पानी में से अर्धचन्द्राकार उछलकूद, डेम के पाले पर उपर चढ़ती हज़ार दो हज़ार मछलियाँ । उनके चांदी जैसे उदरभाग की चमक, क्षितिज पर होते बिजली जैसी ही आकर्षक तडीपार भरपीने के उनके साझा प्रयत्न आधे तक पहुँचे । पानी का प्रवाह फिर वापस फेंके । इस तरह के पानी में से उस तरफ के पानी में पहुँचाने की उनकी चटपटी (जल्दबाज़ी) करुणान्तिका बन जाएँ । पानी के प्रवाह से पटकाती वापस गिरी मछली नीचे घूमते साँप का कौर बन जाएँ । तडीपार ... सचमुच तडीपार । रही सही एक मछली सफल हो । एवरेस्ट आरोहण के उत्सव के मूड में हो तब.... पाले पर हाज़िराबाश (सदा सेवामें रहने को तत्पर) गरदन लम्बी करें... और जय माताजी ! इतने समय में एक भी मछली को चेक डेम में वापस कूटने का सौभाग्य नहीं मिला ! देखो अनिश्चित हवा में, मस्त ठाटवाला किंगफ़िशर । हमें लगे की खुद का आसमानी प्रतिबिंब देखने हवा में इतना स्थिर होकर टिक रहा है । मगर नहीं, उसे तो दिलचस्पी है पानी के भीतर रही मछलियों में ! उस एक ही जगह पर धुमाई हुई उनकी पंखों ने हवा में रेखाओं की जो झाड़ी बरसाई हो, उस के साथ पानी तक लगी उसकी छलांग की एक लकीर बन जाएँ । किसी कमनसीब मछली (मरने के) बहाने से पहले उठ जाएँ ! इसकी तस्वीर कोइ लेकर तो देखें ! भूख़ की गिनती सब को रत रखें । किसी गिनती के बगैर मैं उन में रत रहूँ, और शाम ढलती जाएँ । मंदिर में से आरती सूचक घंटी बजे । सितंबर की 'यह शाम' मेरी ख़ुद की । बिलकुल जानी पहचानी । बिलकुल स्थानीय । मंदिर के नगाड़े का ढम... ढ...म... ढ... म.... बुद्धमात्रिक यांत्रिक लय सुनता हूँ तो सरक जाता हूँ दूसरी एक शाम की स्मृति में । पिछले बरस के नवंबर की 20 तारीख की वहा शाम बिलकुल आज उधेड़ रही है, मेरे भीतर से....

काजीरंगा नॅशनल पार्क । असम वह शाम चार-सवा चार को ही अँधेरा उतर चुका था नॅशनल पार्क में परमिट लेकर बंदूकधारी रक्षकों के साथ जीप में निकले थे । गहराई तक उतर जाते... एकाकी-रहस्यमय रास्ते । ऐसा ही रहस्यमय जंगल । उनकी पुंसकता जंगल का लिंग परिवर्तन करने को प्रेरणा दें.... जंगल कैसा के बदले कैसो लगे - ऐसी, घनी ! मन में बहुत बड़ा चित्र था । डिस्कवरी चैनल के परदे पर देखे गए दृश्यों की एक छाप थी । उन्मत गज यूथों को पानी में मस्ती करते हुए देखना था, बाघ की दहाड़ें सुननी थी यहाँ-वहाँ घास के मैदानों में चरते गैंडों ने आकर्षण रचा मगर फिर जंगल सुरीला लगाने लगा एक तो जंगल की ऐसी उदास अनुभूति, और उस पे शाम ! धुंध भरे बादल जहाँ-तहाँ अहदी (आलसी) गैंडे जैसे पड़े थे नीचे पाँव पर चलने की ईच्छा जताई मगर गार्ड ने सावधान करके मना कर दी । जीप ने एक वॉच टावर के पास विराम लिया । वॉच टावर पर से विशाल जंगल, घास भरे मैदान और आकाश को देखता रहा उदासी ने मारवा (राग) छेड़ा... मगर तभी तो नीचे फैले पड़े तालाब ने अचानक प्रसन्न पूर्वी का अनुभव करवा दिया । तालाब की केसरी-रुपेरी-काली-सफ़ेद झाँकी अभी भी झिलमिलाती है मेरे अंदर एक छोटा पेड़ गोष्ठी करता था तालाब के साथ, मैं भी जुड़ गया । कहाँ मेरे यह चेकडेम- बोर तालाब.... और कहाँ काज़ीरँगा का सरोवर ! मुड गए वापस । रास्ते में एक हस्तीयुगल और उनके मुकुने देखे और उछाले, ओह्ह्ह्हो ! बाद में पता चला की वह तो वन विभाग के पालतू हाथी । अरेरे !

एक क़सक़ के साथ, इतनी दूर आएँ और कुछ "ख़ास" पा न सके उसके अफ़सोस के साथ वापस मुड़ें, काज़ीरँगा गाँव के धनाश्री रिसोर्ट में । शाम ढल चुकी थी और आकाश को छू सके इतना नीचे उतर आया था ।'झिलमिल पड़ाव' जैसा । उसने थोड़ा दिलासा देने जैसा किया मगर चैन न मिला इसलिए पैदल निकल पडा । गाँव की बस्ती की ओर । कहीं दूर से समूह में असमिया तालावाद्यों की आवाज़ आती थी । आवाज़ की दिशा में खींचा गया । देखता हूँ तो एक मंदिर के परिसर में एक साथ दस-बारह लड़के, दस-बारह वर्ष की उम्र के, गले में मृदंग लटकाकर तालीम ले रहे थे । असम के आराध्य शंकरदेव का मंदिर है । बिजली नहीं है इसीलिए मंदिर के लालटेन का हल्क़ा सा उजास इस बालभक्तों को उजला कर रहा था । मृदंग को कपडे से सजाएँ है । धोती-गमछे में सजे बच्चों की आँखों में सीखने की उत्सुकता है गुरूजी- प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक सिखा रहे हैं । आनेवाले उत्सवों की तैयारी चलाती है

"एक, दुई, तीनी, सारी !"
"एक, दुई, तीनी, सारी !"

असमिया भाषा तो समझ में नहीं आती मगर मात्रा की गिनती समझ में आती है । बच्चों के अनगढ़ हाथ की थाप मिश्र स्वर खडा करती है । गुरूजी हाथ पकड़कर वाद्य में से ताल का पता बतातें है;

धे डाऊँ...., धेडाऊँ...., धे...डाऊँ...! गूँज उठाता है । बीच बीच में मुझे - अनजाने को लड़के देख रहे है । गुरुजी तालीम में ध्यान देने की सूचना देते हैं । आसनस्थ वाद्यातालीम अब नर्तन समेत के वाद्य कार्यक्रम में तब्दील होता है । बजाते-बजाते अर्धचन्द्राकार या पूर्ण चौगिर्दा घुमाव में पाँव का थापा रचाते लड़कोंने, किसी बड़े "जलसे" को टक्कर मारे ऐसा जलसा करवा दिया । छोटी मात्रा के आवर्तनों के बाद शुरू हुए दीर्घमात्रिक आवर्तन....

खीरी खीरी ता..., खीरी खीरी ता !
खीरी खीरी ता..., खीरी खीरी ता !

.... एक बच्चे ने "खिरी" ढँग से बजाया... खिरी ! हाँ ! फिर जम गया ! लड़कों का नर्तन :

ता खुरु धेता धेनीन... डाऊँ, ता खिरी... की रिकी धाऊँ,
ता खुरु धेता धेनीन... डाऊँ, ता खिरी... की रिकी धाऊँ,


असम के बिहुनृत्य देखने का सद्भाग्य प्राप्त हुआ था । असमिया युवक-युवतियों का मादक अँगडोलन और नर्तन में समग्र पृथ्वी की ऊर्जा का अनुभव किया था । उन बच्चों के नर्तन में एक प्रकार की शांत जल्दबाज़ी महसूस हो रही थी । 'धेनीन...डाऊँ ' और 'ता खिरी... की ' में बीच में जो अवकाश रखा गया है वहाँ आप अपनी झॉंझ जैसे धातुवाद्य की एक आवाज़ की कल्पना करो और उस थाप पर पॉंव का ठेका लेकर चौगिर्दा धुमाव करते बालनर्तक की कल्पना करके देखो तो !

मन ही मन में गुनगुनाते हुए कब खड़ा हो गया, पॉंव कब नाचने लगे... पता ही न चला : ता खुरु धेता धेनीन... डाऊँ, ता खिरी... की रिकी धाँउ, ता खिरी... की रिकी धाँउ !... बच्चों की मंडली, उनको घर ले जाने आई असम की मावरो ठहका (खडखडाट) लगाने लगी । आनंद । आनंद । आनंद । उदास शाम को ऐसी अदभुत रात्रि का आसरा मिले ऐसी कल्पना कहाँ से हो ? पूरे असम का दर्शन यहीं पर ही कर लिया । अब कहीं भी जाने की ज़रुरत नहीं । बच्चे लोग के साथ बहुत सारी बातें हुई । सब के नाम तो याद नहीं रहे । एक स्मृति में रह जाएँ ऐसा था : हरिपद पंकज ! यह सब हरिपद पंकजों उनकी परम्परा को आत्मसात्‌ करने के लिए जो मथ्थापच्ची कर रहे थे, उसने मुझे सोच में डाल दिया । मृदंग लेकर विष्णु चरण में समर्पित होते हरिपद पंकज के हाथ में मशीनगन कौन रख देता है ? यह वही असम है, जहॉं दिन दहाड़े भी बाहर न निकल पाएँ ऐसा आतंक प्रवर्तमान है । बत्तीस लक्षणा 'उल्फा ' युवक मृदंग छोड़कर इस रास्ते पर क्यों मुड़ते हैं उसी की उल्फ़त है । गौहाटी में महसूस किए भय के ओथार को काज़ीरँगा की तारों से सजी रात को, शंकरदेव के मंदिर ने चूरचूर कर दिया ।

देखो, कैसी सिम्फ़नी रच गई ! मेरे खोडियार मंदिर के इस नगाड़े की बंधी गति के साथ असम के मृदंग जुड गएँ । 'ढम्‌... ढम्‌...! ढ...म्‌ ढ...म्‌ ढ...म्‌ ' खिरी खिरी ता, खिरी... खिरी ता ! एक यह शाम और एक 'वह ' शाम । ऐसे जुड गई ! अजब होती है शाम की लीला, क्यों ! मेलंकली में से सहज सर्जित हुई यह मेलोडी आपको भेज दूँ न ! आप भी उस के गायक है, और कितनी तंज़ोर के साक्षी हो । चलो भी, गा लेते है वह पसंदीदा गीत :

वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है
वो कल भी आसपास थी, वो आज भी क़रीब है

.... है कि नहीं ?

डॉ. महेन्द्र सिंह परमार

रीडर, गुजराती विभाग,
भावनगर महा विश्वविद्यालय,
भावनगर (गुजरात-भारत)
मो.- 9898188389

पंकज त्रिवेदी "ॐ", गोकुलपार्क सोसायटी, 80 फ़ीट रोड, सुरेन्द्र नगर, गुजरात - 363002

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