गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले में थानगढ़ और चोटिला क्षेत्र में भगवान त्रिनेत्रेश्वर का एतिहासिक मंदिर है | मगर ग्रामीण भाषा में त्रिनेत्रेश्वर के बदले अपभ्रंश होकर "तरणेतर" के नाम से प्रचलित हो गया है | वैसे तो सामान्य दिनों में यहाँ सबकुछ उजड़ा हुआ लगता है मगर जब मेले का आयोजन होता है तब यहाँ का नज़ारा देखते ही बनाता है | तरणेतर का मेला जिस परिसर में प्रति वर्ष आयोजित होता है वह त्रिनेत्रेश्वर मंदिर कच्छ के लखपत के राजवी महाराजा करणसिंहजी ने उनकी उनकी पुत्री करणबा की स्मृति में 1902 में बनवाया था |
इस त्रिनेत्रेश्वर परिसर में मंदिर के बिलकुल सामने एक बड़ा सा कुंद है और इन दोनों के बीच में एक तुलसीक्यारा भी है | यह मंदिर सोमपुरा जातिओं की शैली का माना जाता है | परम्परागत लोक संस्कृति के प्रती तरणेतर मेले का प्रति वर्ष भाद्रपद चतुर्थी-पंचमी और छठ के दौरान तीन दिनों का आयोजन होता है | यहाँ पर राज्य के मुख्यमंत्री या किसी भी अन्य महामहिम के करकमलों से त्रिनेत्रेश्वर महादेव के मंदिर पर 52 गज की ध्वजा फहराकर मेले का शुभारम्भ किया जाता है | तीन दिवसीय इस मेले में लाखों की तादाद में लोग उमड़ पड़ते हैं | मेले में प्रतिवर्ष पांच लाख से ज्यादा लोगों की भीड़ जमा होती हैं | प्रशासन को हमेशा सतर्क रहना पड़ता है | मेले के साथ भगवान त्रिनेत्रेश्वर का नाम जुड़ा है | इनके साथ दो प्राचीन कथाएँ भी है | मंदिर के पास परिसर में पानी का कुंड आज भी मौजूद है | तीन दिन के इस मेले के दौरान कुंड में गंगाजी प्रकट होती हैं | चतुर्थी की मध्य रात्री को कुंड में स्नान करना पवित्र माना जाता है |
एक अन्य लोककथा के अनुसार व इतिहास के अनुसार प्राचीन युग में इस भूमि पर महाराजा द्रुपद का शासन था | उनके पुत्र का नाम दृष्टद्रुम और पुत्री का नाम द्रौपदी था |
जब पांडवों को 14 वर्ष अज्ञातवास में रहना पडा, तब वे भेष बदलकर यहीं आएं थे | उसी काल में महाराजा द्रुपद ने अपनी बेटी द्रौपदी का स्वयंवर रचा था | भगवान शिव के मंदिर के सामने कुंड में एक बड़ा सा स्तंभ रखा गया था | उसी स्तंभ के आधार पर तराजू के दो पलड़े उअर स्तंभ के ऊपर घूमती मछली राखी गयी थी | स्वयंवर में शामिल होनेवाले के लिएँ मछली की आँख को भेदने की शर्त राखी गई थी | महाराज द्रुपद की सभा में कीं राजा-महाराजा ऐसा करने में विफल रहें | इसी सभा में ब्राह्मण के भेष में पहुंचे अर्जुन ने मछली की आँख को भेदकर वरमाला पहनाई |
जब द्रौपदी को लेकर अर्जुन सहित पाँचों भाई घर पहुंचे तो माता कुंती से कहा; देखो माँ, हम क्या लेकर आएं है? तो माता कुंती ने दरवाज़ा खोलने से पहले ही कह दिया कि जो भी लाएं हो, पांचो भाई आपस में बाँट लो | ईस तरह पांच पांडव और द्रौपदी माता की आज्ञा को कैसे नकारते? तब से द्रौपदी के पांच पति थी और उसी कारण उसे "पांचाली" नाम दिया गया था | बाद में ईस भूमि को भी "पंचा प्रदेश" से लोग आज भी जानते हैं |
लोक संस्कृति की परम्परा को उजागर करने वाला यह मेला करीब दो शताब्दी पूर्व शुरू हुआ था | मेले में खासकर पशुपालक जातियों के लोगो का बड़ा आकर्षण रहता है | उन्हें खेलते हें देखने के लिएँ देस-परदेस से बड़ी संख्या में लोग आते हैं | यहाँ स्थानीय जातियों में ज्यादातर कोली, ठाकोर, अहीर, काठी और रबारी-भरवाड (पशु पालक) मुख्य हैं | ईस जाती के बड़ी बड़ी मूछों वाले युवकों के साथ युवतियों को परम्परागत हुडो, रास-गरबा, टिटोडो, डांडिया खेलते समय दोहे और छंद गाते हुए देखना-सुनना एक अनूठा सौभाग्य ही है | हुडो में पशुपालक युवा-युवतीयां एक कतार में आमने सामने खड़े होते हैं | फिर सब साथ मिलकर प्राचीन लोकगीत गाते हुए ताली बजाकर आमने-सामें हथेलियाँ टकराते हें नाचते हैं | जब रास करते हैं तब तो डंडिया के साथ गोल घुमाते हें हवा में दो-दो फूट ऊंचाई तक कूदकर गाते हैं | ईस कूदने की गति के साथ जितने भी खेलने वाले हों, उन सबके पैर हवा में होते हैं | उस वक्त का नज़ारा देखते ही बनाता है | मेले में रंगबिरंगी कढाई किएँ गाएँ कपड़ों से सजाया गया बड़ा सा छाता लेकर अहीर युवक सोने के गहनों से सजाकर ढोल के ताल पर "छाता नृत्य" करता है |
ईस मेले में खासकर पशुपालक जाती के विविध खेलों को देखने के लिएँ विदेशी पर्यटक उमड़ते हैं | इन लोगों के रंगबिरंगी वस्त्रों के कारण फिल्म और फोटोग्राफी के शौकीनों को मजा आता है | एसा कहा जाता है कि फिल्म वालों के रील भी यहाँ कम पड़ते हैं | कुछ सालों से घुड़सवारी और बैलगाड़ी के साथ ग्राम्य खेलों - कब्बडी, पकड़ दौड़ को शामिल करके ग्राम्य ओलम्पिक का भी आयोजन होता है | उसे प्रोत्साहित करने के लिएँ राज्य सरकार की ओर से पुरस्कार भी दिएँ जाते हैं |
ईस प्रकार प्रयागराज में लाखों की तादाद में भाविकों की भीड़ उमड़ती है, उसी प्रकार तरणेतर के मेले में भी लाखों लोग श्रद्धा-भक्ति के साथ रोचक खेलों के देखने भी आते हैं | वैसे तो भारतीय परंपरा में मेले का दो प्रकार का महत्त्व है | एक धर्म की श्रद्धा और दूसरा सांस्कृतिक रीत-रिवाजों के खेल के साथ युवा-युवतियों का मेलाप करवाना | आज भी पशुपालक जाती के बुज़ुर्ग लोग ईस मेले में अपने बच्छों की पसंद देखने और उसे दिखाने आते है | तरणेतर का मेला आज भी धर्म-श्रद्धा और परंपरागत खेल-संक्स्कृति का द्योतक है |
सौराष्ट्र की सुहानी धरती को रंगभरा लोकसमूह, उसके पर्वत, दिलावर दरियालाल, शेरों की दहाड़ों से गूंजता हराभरा गीर का जंगल, मवेशीओं को लेकर जंगल में ही रहते पशुपालकों का नेस, प्यारे गाँव और राजे-महाराजे की स्मृति से साभार शहर.... भक्ति, भजन और शहीदों के स्मारक (पाळीया) प्रत्येक गाँवों के भव्य ईतिहास की गवाही देता है |

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"ॐ", गोकुलपार्क सोसायटी, 80 फूट रोड, सुरेंद्रनगर-363 002 गुजरात