ये मेरा दर्द है, मेरी पीड़ा
कौन हूँ मैं उसे समझने की जद्दोजेहद में लगा हूँ...
शायद मैं खुद को ढूँढने की कोशिश में
खुद से ही बिछड़ रहा हूँ...
पता नहीं, क्या करूँ में?
क्यूं चाहता हूँ तुम्हें..?

चाहत मेरा स्वभाव है शायद,
समर्पण मेरा संस्कार है,
वो कैसे छूटे मुझसे ?

तुम आझाद हो.. रहो...
मै तो फ़कीर हूँ
जिसकी कोइ मंजिल नहीं फिर भी
मुझे यह भी पता है की -

यही राह है मेरी
जिस पर चलना है मुझे...
राह चलते हुएँ
मिलता रहता हूँ हर किसी को...

मगर यहाँ भी जान गया हूँ कि
मेरा सफ़र अभी भी ख़त्म नहीं हुआ...
मुझे ऐसे ही चलना है...
कोइ प्यार की भीख देता या
नफ़रत की....
मेरी यही सभानता ने उलझा दिया है मुझे...!
मेरा मोक्ष नहीं है अभी भी....

और मैं
चाहता भी नहीं हूँ उस मोक्ष को
जो मुझसे अलग कर दे
तुम्हीं से....
खुद मुझसे ही मैं खोना नहीं चाहता....
यही दर्द है जो मुझे हरा पल एक नई मंजिल दिखाता है.....
दो कदम आगे बढ़ने को....


10 अगस्त 2010