मैंने गाँव देखा है | बैलगाड़ी देखी है और हरियाले खेतों में लहराते गेहूं के भुट्टे तोड़कर खाए हैं | मेरे पास अभी भी प्रकृति की पूंजी सलामत है | मेरी नव वर्ष की छोटी-सी बेटी के बाल संवारकर, उसमें आँगन में खीले गुलाब के फुल से शोभा बढ़ा सकता हूँ | उसका हंसता चेहरा मुजे दादीमा की याद दिलाता है | कभी-कभी बाल संवारते समय एकाद लट सरक जाएं तब - बेटी मीठे उपालंभ से कहती; " क्या, आप भी पप्पा... ! लाईये मै खुद ही संवार लूं..." तब आँख के कोने की नमीं के बीच से उसे देखूं तो सोचने लगता हूँ, शायद मेरे बेटी बड़ी हो गयी है...! वह मुजे छोड़कर चली जायेगी ऐसे डर से... आंसू के धुंधलेपन के बीच से उसे देखकर कहूँ; "अब लट नहीं निकलेगी बेटी, मैं ध्यान रखूंगा..." ईतना कहकर उसे मेरे साथ खाना खिलाकर स्कूल तक छोड़ने के लिएँ मैंने अभी भी समय बचा रखा है | मेरी बेटी मेरा ..का...... है !


(आज तो बेटी कोलेज में है... समय अभी भी है...)

गाथा और विश्वा