कविता : बरगद का पेड़ - पंकज त्रिवेदी
एक लंबे से
बरामदे में कमरे आठ
विशाल आँगन में पांच पुत्रों के
परिवार के पिता
बरगद के पेड़ के नीचे
खटिया पर लेटे आराम फरमा रहे थे।
पोते-पोतियाँ गिल्ली-डंडा खेल रहे थे....
वैसे, इससे ज्यादा सुख
क्या होगा उन्हें, भला
तभी -
तीसरे नंबर का पुत्र
बड़ा सा मछलीघर उठा लाया
बूढ़े पिता को दिखाता हुआ बोला,
कितनी बढ़िया मछलियां हैं, कैसा लगा.....?
पिता बोले -
लग तो रहा है काफी अच्छा, मगर......।
मगर क्या? बेटे ने पूछा
तुमने तो मछलियां कैद कर रखी है
नहीं बाबूजी,
हम तो उन्हें खाना देंगे,
वैसे तो बड़ा-सा है उनका शीशमहल.....
मेरे मुन्ने ने जिद की तो ले आया
अरे भाई,
पिता गमगीन होकर बोले,
उनका यह शीशमहल सागर से बड़ा है क्या?
तब बेटा बोला,
आजादी इतना ही मायने रखती है
आपके लिए
तो....तो ... क्या? निकाल ले भड़ास अपनी....
हमने आजादी के लिए लाठियां खाई हैं
ठीक से जानते हैं हम आजादी को....
तो सुनो....
हम भी चाहते हैं आजादी
अपने घर में... अलग....
पिता की बूढ़ी आँखें
हल्के से नम हुई...
धीरे से बोले -
परिवार तो बरगद की छाँव है
तुम जो ठीक समझो...
खुश रहो, मगर सुनते भी जाओ -
तुम सागर को छोड़ एक्वेरियम में जा रहे हो
अंग्रेजों की लाठी खाई है
और इंगलिश सीखी है उनसे ही...
कभी अपने आपको अकेला महसूस करो
तो...तुम्हारे इसी एक्वेरियम के सामने बैठकर
मछलियों की आंखों में झांकना
पढ़ना उनकी व्यथा को....
बेटा बड़बड़ाता हुआ चला गया
बूढ़ा खटिया पर लेट गया
बरगद के पत्तों से
ठंडी हवा बहने लगी....
पंकज त्रिवेदी
"ॐ", गोकुलपार्क सोसायटी
80 फ़ीट रोड़, सुरेन्द्र नगर
गुजरात - 363002
This entry was posted on 7:11 AM
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कविता
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6 comments:
और इससे आगे की व्यथा पाठक के मन में बहने लगी।
अविनाशजी,
आपके पूरे परिवार को जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई | प्रस्तुति पर अपना विचार देने के लिएँ धन्यवाद |
मैं भी वही कहूँगा जो आदरणीय अविनाश जी ने कहा कि इससे आगे की व्यथा पाठक के मन में बहने लगी। आभार आदरणीया पंकज जी का!!
नरेन्द्र, धन्यवाद
मार्मिक चित्रण... !!
एस. सी याने
माननीय सुरेश चन्द्र जी,
आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रया के लिएँ धन्यवाद |
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