दोस्तों,
आपका स्वागत है | वैसे तो "विश्वगाथा" को मेरे द्वारा सर्जित साहित्य को प्रकाशित करने हेतु शुरू किया था | मगर हमें अकेला रहने-जीने की आदत ही कहाँ? तो फिर हमने सोचा कि प्रत्येक रविवार को हम किसी एक अतिथि को "विश्वगाथा" की चौखट पर बुलायेंगे और उनके विचारों को खुशी के साथ सब को बांटेंगे | आज पहले ही रविवार को "अतिथि" के रूप में सुप्रसिद्ध कवयित्री रश्मि प्रभा हमारे बीच है | मेरे लिएँ उनकी सद्भावना हमेशा साथ रही है | मैं दिल में उनके लिएँ पूरा सम्मान है | ब्लॉग जगत में रश्मि प्रभा का नाम एक लकीर की तरह अंकित हो चुका है और वह मेरी दोस्त है ! मैं इसे ईश्वर का आशीर्वाद मानता हूँ | - पंकज त्रिवेदी
लौट आओ : रश्मि प्रभा

वर्षों से संजोया

तिनका-तिनका

अपनी आँखों से बरसते नेह का

बनाया एक अदृश्य घर...

तुमने देखा तो होगा

बरसते नेह की मजबूत दीवारों को

पहचाना तो होगा ...

दिन बिता शाम हुई

शेष है रात

मेरे साथ कुछ भी तो नहीं हरी

अब क्या सोचना !

रात के इस शेष प्रहर में

जहाँ मोह की बुलंद दीवारों ने

अपने बुलंद दरवाज़े बन्द कर दिए हैं

इस घर में आ जाओ

यहाँ तो जो कुछ है

तुम्हारा है ....

एक लम्हें का साथ

दरो दीवार पे यूँ सिमट जाये

होता तो है

एक आवाज़ हमसफ़र बन जाये

ऐसा होता तो है

पर सरेराह दिखता कहाँ है ...

मेरी आँखों की ओट में

तुम मेरे साथ हो

चाँद राहों में खो जाये

चांदनी रो पड़े

उससे पहले घर लौट आओ

अब ख्यालों से दिल नहीं भरता ...