प्रेम से परमात्मा की ओर

प्रेम ! यह शब्द जितना प्यारा लगता है,उतनी ही भयानक इसकी परछाईं है,क्यूँकि इस शब्द के मूल अर्थ को समझाने से पहले कईं भ्रामक अर्थ प्रेम के इस पवित्र शब्द को अछूत कर देते हैं और वहीं अर्थ भयानक सिद्ध होता है । प्रेम शब्द आदि-अनादिकाल से हमारी अभुभूति के शब्दकोश में अंकित है कालान्तर के साथ प्रेम की भाषा में निरंतर परिवर्तन होता है । उसकी अभिव्यक्ति भी बदलती है । प्रेम-शब्द को जानना,उसका अनुभव करना, समझना- यह सब प्रक्रिया ज़िंदगी के सफ़र का अनिवार्य हिस्सा है । इस प्रक्रिया में सब की अपनी-अपनी समझ होती है और इसकी मर्यादा में इसके विविध अर्थ भी । जन्म से मृत्यु तक पेम की प्रक्रिया चलती रहती है । कहीं नफ़रत या संघर्ष में भी मुख्यत: प्रेम शब्द की ज़िम्मेदारी ही होती है । इंसान को प्रेम मिले तब उसके कईं प्रश्नों का हल अपने-आप हो जाता है । मगर कभी-कभी प्रेम के कारण ही इंसान के जीवन में ज़बरदस्त संघर्ष या परिवर्तन देखने को मिलता है । ऐसे मामले में दो पात्रों के बीच तीसरे पात्र की दख़लअंदाज़ी कारण बनाती है । ऐसे समय प्रेम के लिए इंसान की पारस्परिक समर्पण की कसौटी होती है । इस कसौटी में से बहुत कम पार उतरते हैं ।

गुजराती भाषा के समर्थ साहित्यकार-नाट्यकार चं. ची. मेहता के जीवन की अति प्रेम-करुनामय वास्तविकता आज भी हमारे ह्रदय को हिला देती है । चं. ची. मेहता के एक मित्र को उनकी पत्नी से प्यार हो गया था । अपनी ही पत्नी को प्यार करते मित्र की जानकारी होते चं. ची. मेहता ने उन दोनों को शादी करने की मंज़ूरी दे दी थी । समय के साथ मित्र की पत्नी यानी चं. ची. मेहता की असल पत्नी का देहांत होने से खुद चं. ची. मेहता मित्र के घर शोक प्रकट करने गए । आख़िर,उनके घर से निकलते समय चं. ची. मेहता ने विलाप करते उस मित्र के कंधे पर हाथ रखकर कहा - "दोस्त,मेरी दूसरी पत्नी नहीं है,अन्यथा वो भी तुझे..."

प्रेम मिले तब तृप्ति का अनुभव होना चाहिए । मगर ऐसा हमेशा नहीं होता । प्रेम के ऐश्वर्य की अनुभूति या परम सुख को प्राप्त करने से पहले अपेक्षा का विघ्न बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है । इस कारण से प्रेम का ही कौमार्य भंग होता है और उसमें वासना के शैतान की बुद्धि की दख़लअंदाज़ी बढ़ जाती है । इंसान प्रेम के शिखर तक तो पहुँच जाता है मगर वहाँ शिव की आराधना जितना तादात्म्य और पवित्रता रह नहीं पाती और इंसान वहीं से फिसल जाता है। चुलबुलापन उसके धैर्य को डिगा देता है और परम की प्राप्ति तक पहुँचाने का संघर्ष करने के बावजूद निष्फलता की गहरी खाई में धकेल देता है ।

मैं सुबह जागताहूँ,तो आँगन के पेड़ पर से सैकड़ों पंछियों की चहचहाहट सुनाई देती है । सूर्य की किरणों की उष्मा को पाने का सद्भाग्य मिलता है । प्रात: ओस से भीगी सड़क पर बेटी का हाथ थामे स्कूल तक छोड़ने के बहाने मोर्निंग-वॉक करना,उगते सूर्य के रंगीन मिज़ाज को अनुभव करना कितना अच्छा लगता है ! किसी सुन्दर युवती को मार्निंग-वॉक करते देख,नज़रें मिलीं और किसी प्रकार की पहचान के बग़ैर दोनों के चहरे पर स्मित उभर आए तब पूरे दिन की शक्ति मिलाने का आनंद प्रेमथैरपी ही है न !

प्रेम करने के बजाय प्रेम हो जाने की घटना में सात्विकता होनी चाहिए। उसमें ही सच्चाई है । प्रेम में निष्फलता मिले वह बात ही ग़लत है । जब हम प्रेम करते हैं तो वह प्रेम सफल और समर्पित ही हो,ऐसे में निष्फलता का सवाल ही कहाँ? जब अपेक्षा बीच में आती है तब सभी सवाल ग़दर करके अपनी इंसानियत के अस्तित्व को नंगा कर देता है । जावेद अख्तर का एक शेर है -

उन चरागों में तेल ही कम थक्यों गिला फिर हमें हवा से रहे

प्रेम का स्वरूप तो ज्योति जैसा है,वह स्वयं प्रकाशित है । प्रेम का अर्थ किसी अन्य के जीवन में समर्पित उजास फैलाने से है । वर्त्तमान में हमारी युवा पीढ़ी का प्रेम कितना छिछला है, यह कभी सोचा है? प्रेम की ज्योति प्रकट होते ही हम इच्छा और वासनाओं की जेब भरकर मानो उसेखरीदने निकले हों ऐसे समय इसके बीच में हाँफ जाते हैं। संघर्ष का स्थान जब आशंका ले लेती है तब प्रेम का महल अणु-अणु में तब्दीलहो जाता है।इस जमाने का प्रेम ज़्यादातर दृष्टिभ्रम से होता है दृष्टि कुरियर का कार्य करती है और बुद्धि डाकिये का ! दृष्टि प्रेम की अभिव्यक्ति को देखती है, बुद्धि उसका पृथ्थकरण करके मन-ह्रदय तक जगत के सौन्दर्य को पहुँचता है।प्रेम का अंतिम लक्ष्य कौन-सा? जगत का प्रत्येक इंसान इन सवालों में घिरा है ।जावेद अख़्तर का ही यह शेर प्रेम के अलग मिज़ाज़ को उजागर करता है -

अपनी महबूबा में अपनी माँ को देखें
बिन माँ के लड़कों की फ़ितरत होती है

जीवन का यह अत्यंत मार्मिक घाव है । जिन्होंने कभी भी मातृत्व का अनुभव नहीं किया है, ऐसे व्यक्ति को प्रेम की उष्मा का अभाव खटकता है । इंसान के स्वभाव के अनुसार जो सुख मिला है उस के बदले जो नहीं मिला है उसे प्राप्त करने की तीव्रत्तम बेचैनी ज़्यादा जोख़िम वाली होती है । महबूबा में मातृत्व की खोज करते प्रेमी को उसकी प्रेमिका जब समझ न पाए तब निष्फलता की बात आती है ऐसे प्रेमियों को सेक्स में कम रूचि होती है और आश्रय या ऊष्मा की अपेक्षा ज़्यादा होती है । यह पूरी प्रक्रिया मनोवैज्ञानिक है ऐसे कारण से कईयों के दाम्पत्यजीवन को टूटते हुए देखा है। एसा प्रेमी अपनी प्रेमिका के पास अपेक्षाएँ रखता है कि उनका प्रेरणादायी साथ हो और वात्सल्यभाव भी हो ! हक़ीक़त तो यह है कि "प्रेम से परमात्मा" की यात्रा यहीं से शुरू होती है ।

वेलेंताईन-डे मनाने के लिए प्रेमाप्रेतीक के रूप में गुलाब का फूल या अन्य भेंट देकर प्रेम को व्यक्त किया जाता है उस के पीछे यह अर्थ है कि प्राण से प्रकृति तक की यात्रा में मैं तुम्हारे साथ हूँ । शब्द के बदले अपने ह्रदय की भावनाओं से अभिव्यक्ति होने की बात है । प्रेम सिर्फ एक शब्द नहीं है, अहसास है । क्या ऐसे संकल्प के साथ वेलेंताईन-डे मनाने के लिए दिल से तैयार रहते हैं हम?


पंकज त्रिवेदी

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