संवेदनाएं

बिना दरवाजे, खिडकियों की झोपडी में,

बाहों में बाहें डाले,

मिला करती थी, तेरी-मेरी संवेदनाएं।

सिसक, सिमटकर कह जाती,

एक-दूसरे का दर्द।

खिलखिलाकर बांटती थी,

खुशी के लम्हे, बीते वाकये।

अब नहीं मिल पाती संवेदनाएं,

पहले जैसी निकटता अब कहाँ,

छत के नीचे की दीवारों पर

जड गए हैं दरवाजे।

बंद रहती है खिडकी हमेशा,

खुलती भी है तो मोटा पर्दा

बीच में जाता है, दूरियाँ बढाने।

कैसे मिलें, कैसे कहें?

अब अपना सुख-दुख कैसे बांटें?

घुट रही है जिन्दगी,

अकेली, निराधार, असहाय!

काश! यह पर्दा उठे,

दिखजाए संवेदना का चेहरा फिर,

दूर करे कोई उसकी उदासी,

पूछ जाए आकर, सीने से लगाकर,

क्या तुम्हें कुछ कहना है? मुझसे . . . . . .

साहस जीने का……

झँझावतोँ मेँ मन उलझा फटी पतंग सा,

कुछ अनिश्चितताओँ मेँ मगन,

ढेर सी चिँताओँ मेँ मगन

सब कुछ तो करेँ क्या न करेँ,

कुछ असमँजस सा

टिकेँ कि रहेँ कदम जमीन पर भी और

थाम लूँ ये सारा गगन, कुछ इच्छायेँ
जगीँ सी ख्वाब भी जाग गये से,

कुछ तो पहले ही की दमित इच्छायेँ,

कुछ कुचले हुये सपने भी पर सोचा ये भी

कि झटक दूँ समस्त झँझावतोँ को,

कि जगा लूँ समस्त कुचले हुये सपने,

दमित इच्छाये भी , समेल लूँ साहस जीने का ,
कुछ सँघर्ष करने का, कि इसके बिना तो

हो जाये जीना मुश्किल सा....