तुम वो हो जो -

बालू के कण के समान हो

सब के साथ रहकर भी अकेली

कण-कण में बिखरी हुई

तुम वो मिट्टी हो

सब के साथ चीपकी हुई

मगर सबका दुःख झेलती हुई

तुम, तुम हो-

जिसका अस्तित्त्व होते हुए भी

खुद कुछ नहीं

न अभिमान तुझे

न सम्मान की ईच्छा

तुम सह रही हो सबको

तुम अपनी छाती को चीरती हुई

दे रही हो प्रत्येक सजीवों को

एक नया जीवन

हाँ, तुम बालू का कण हो, रेणु हो

और तुम ही धरती !

जिसके बिना जीवन ही कहाँ?

मगर तेरे समर्पण को देखने की

फुर्सत ही कहाँ और किसे है यहाँ?

तुम चुपचाप सह रही हो, हंसती हुई

ईठलाती सी.... दूसरों की नज़र में

जानता हूँ -

तुम्हारे अंदर भभकता हुआ

लावा भरा है

फिर भी तुम शांत हो

तुम अगर करवट भी बदलती हो

तो तहस-नहस हो जाती है ये दुनिया

तुम्हारी विडम्बना है ये...

फिर भी

दूसरों के सुख के लिएँ सदा तुम

अडिग, अविचल.... तेरे ईस रूप को

मेरा नमन !


समय : 5 .30 AM 21/10/2010