व्यर्थ नहीं हूँ मैं - कविता किरण

व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।

मैं स्त्री हूँ!
सहती हूँ
तभी तो तुम कर पाते हो गर्व अपने पुरूष होने पर
मैं झुकती हूँ!
तभी तो ऊँचा उठ पाता है
तुम्हारे अंहकार का आकाश।

मैं सिसकती हूँ!
तभी तुम कर पाते हो खुलकर अट्टहास
हूँ व्यवस्थित मैं
इसलिए तुम रहते हो अस्त व्यस्त।
मैं मर्यादित हूँ
इसीलिए तुम लाँघ जाते हो सारी सीमायें।
स्त्री हूँ मैं!

हो सकती हूँ पुरूष
पर नहीं होती
रहती हूँ स्त्री इसलिए
ताकि जीवित रहे तुम्हारा पुरूष
मेरी नम्रता, से ही पलता है तुम्हारा पौरुष

मैं समर्पित हूँ!
इसीलिए हूँ उपेक्षित, तिरस्कृत।
त्यागती हूँ अपना स्वाभिमान
ताकि आहत न हो तुम्हारा अभिमान
जीती हूँ असुरक्षा में
ताकि सुरक्षित रह सके
तुम्हारा दंभ।

सुनो!
व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।


कलयुग - मनोज जोशी

ऐसा कलयुग आया कि...
द्वापर त्रेता के भेद मिट गये ...
द्वापर में द्रौपदी का हुआ चीर हरण...
त्रेता में सीता उठा ले गया रावण...
राम कृष्‍ण ने तब दुष्टों का संहार किया...
राम और धर्म राज स्थापित किया...
सदियाँ बीत गयी दुर्योधन का वध हुए...
दो युग बीत गये रावण दहन हुए ....
मगर नहीं जलता वह रावण जो छिपा बैठा हर देह में...
हरण हो सीता पहुँच रही मीना बाजार...
द्रौपदी का चीर हर बन गया व्यापार...
मानवता कर रही हर ओर चीत्कार...
रक्षक सब भक्षक भए हो रही हाहाकार...
राम कहाँ हो तुम सीता है लाचार...
कृष्ण जल्दी सुनो द्रौपदी की पुकार...
दुर्योधन रावण में अब नहीं कोई अंतर ...
फिर ना कहीं ये देह पाए ऐसा फूंको मंतर...
फिर ना कहीं ये देह पाए ऐसा फूंको मंतर...