Children have more need of models than of critics. (बच्चों को नुक्ता-चीनी करनेवालों से ज़्यादा ज़रूरत आदर्श-नमूने की है) - जोसेफ़ होबेक्स्ट

कुछ दिनों पहले एक अँगरेज़ी माध्यम की स्कूल में पाँचवीं कक्षा में पढ़ती छात्रा को मासिकधर्म शुरू हो गया । जब इस घटना की जानकारी उसकी शिक्षिका को हुई तो उसके आघात और आश्चर्य की सीमा न रही । उस छात्रा के वर्ग के बच्चों में भी आश्चर्य और दर की भावना जगी थी । इस वर्गखंड के बच्चों की सामान्य उम्र दस वर्ष के आसपास ही थी । इस बात पर पिछड़े इलाक़े की एक पाठशाला की शिक्षिका ने बताया की ऐसी घटना नई नहीं है, क्यूंकि मैंने भी ऐसे क़िस्से देखें है । उसकी बात से हम सब की चिंता बढ़नी चाहिए न? अपनी उम्र से पहले ज़ल्दी से परिपक्व बनते बच्चे हमें अच्छे लगते है, उनकी बढ़ती जानकारी (ज्ञान नहीं) से हम उन्हें फुलाकर किसी और के पास बखान करने से पहले हमें सावधान होने की ज़रूरत है । बच्चों की बढ़ती उम्र के साथ उनकी नैसर्गिक समझ-बुद्धि का विकास होना चाहिए । ये उससे ज़्यादा बढ़ जाएँ, तो भी विकृति ही है । हम जाने-अनजाने में उनका नुकसान कर रहे हैं ।

हमारी सामाजिक विचारशैली ने मौलिकता खो दी है । धन-संपत्ति की लालसा इतनी प्रबल बन गयी है कि इंसान की हैवानियत फूल जैसे मासूम बच्चों का शोषण करते हुए भी नहीं हिचकिचाती । इंसान के शरीर की विकृति ज़हर ओकने लगे तब उसकी मानसिकता समाज के लिए ख़तरा बन जाती है । इस पूरी स्थिति के लिए हम सब ज़िम्मेदार हैं । गुजराती लोकगायक स्वर्गीय दुला भाया काग के एक दोहरे का अर्थ कुछ इस प्रकार है - "सूखे घास के पूले के गंज में अगर आग लगे तो उसे बुझाने के बदले जितने पूले को बचा सके उसे बचना चाहिए ।" मतलब कि समाज में विकृति की आग बेकाबू होती जाती है, तब हम अपने बच्चों को उससे बचा सकें तो अच्छा । इसके लिए हमें घर से शुरुआत करनी होगी । पति-पत्नी को संयमी और सात्विक व्यवहार करना चाहिए । उत्तम विचारों के लिए उत्तम पठान, संगीत और धार्मिकता के कारण घर का वातावरण पवित्र बनेगा । यह पवित्रता एक से की तक पहुँचेगी । क्षणिक सुख की इच्छा विकृति को खींच लाती है । हमें इस कमज़ोर पल का निशाना साधकर उसे तोड़ना होगा ।

जातीय शिक्षा को पाठशाला की कक्षा में रखना हमारी समझदारी हैं, यह मानना भी बावलापन है । इसके लिए पहले बच्चों का मनोवैज्ञानिक अभ्यास करने के बाद ही उन्हें जातीय शिक्षा देनी चाहिए । छोटी उम्र में मासिकधर्म-स्त्राव से प्रभावित बच्चियों के लिए आबो-हवा, रासायनिक घास-पात-गोबर-दवाईयों से युक्त खुराक़ और मीडिया भी ज़िम्मेदार हैं । प्रगति के नाम पर अंधा अनुकरण की दौड़ हमने पचास वर्षों से लगाई है । इस पर भी अँगरेज़ों से कुचले हुए रहने के बाद - अब हम स्वतन्त्र हैं - ऐसा भाव ज़्यादा ही प्रकट होता है । कृषिक्षेत्र में रासायनिक पदार्थों के उपयोग से उत्पादन ज़रूर बढ़ा है, मगर उसमें से मिट्टी की महक, कुदरती मिठास और सात्विकता चली गई है । हमारी संस्कृति में गोबर के घास-पात और गौमूत्र की महिमा अनूठी है । विदेशी हमारी संस्कृति और आयुर्वेद को अपनाकर कुदरत की और मुड़ने के लिए प्रयत्नशील हैं और हम पश्चिमी चकाचौंध में चौंधियाने के लिए बेकार कोशिश करते हैं । फलस्वरूप हमारी नस्ल कंगाल और विकृत पैदा होती है ।

सुबह में ज़ल्दी से जागकर स्कूटर-रिक्शा में बच्चे पाठशाला जाएँ, पूरे दिन बैठकर पढ़ें, शाम को टी,वी, के सामने बैठकर भोजन करें तब उनका मन भोजन में नहीं होता । भोजन के समय टी.वी. पर दिखती घटनाओं के साथ मानसिक तनाव का भोग भी बनाता है । इसलिए भोजन में लार मिले, उसकी मिठास मिले, अच्छी तरह चबाकर भोजन को पेट में उतारें, ऐसी संभावना बच्चों में नहीं होती । फलस्वरूप बदहजमी, गैस, एसीडिटी जैसे दर्दों के साथ मानसिक तनाव के भोग भी बनाते हैं । थाले बैठे जीवन के कारण शरीर मेदस्वी बन जाता है । हमारी फ़िल्मों-सीरियलों में भी ज़माने की माँग के बहाने भूत-प्रेत, सेक्स और मारधाड़ के दृश्यों का अति उपयोग होने लगा है । परिवार में बड़े और बच्चे बेशर्म होकर यह सब देखते हैं । फ़ैशन के नाम पर अरूचिकर वस्त्रों में बेटी को देखकर शर्म महसूस करने के बजाय प्रोत्साहन दिया जाता है । ऐसे माहौल में आदर्श परिवार की कल्पना करना नामुमकिन है ।

हमारे राष्ट्र में गांधीवादी विचारधारा ही क्रान्ति ला सकेगी । क्यूंकि उसमें प्रवृत्ति और प्रकृति का सीधा संबंध है । वहां सहजीवनी और सहअभ्यासक प्रवृत्तियों का मेल है, ये कोन्वेन्ट में कहाँ? ऐसी संस्थाओं में पारिवारिक भावनाओं का जतन और कृषि-स्वास्थ्य जैसे विषयों के कारन मानसिक-शारीरिक गढ़न भी होता है । श्रम और सेवा के गुण विक्सित होते होने के कारन ऐसे बच्चे सामाजिक और राष्ट्रीय सेवा में ज़्यादा अग्रेसर रहते हैं । वहाँ मिट्टी की मोहब्बत होने के से अच्छा स्वास्थ्य और सत्त्वशील विचारधारा बहती है । हमने कभी सोचा है की बच्चे पाठशाला से छूटकर आएँ, तब हम उनका सहर्ष अभिवादन करें? पूरे दिन की उनकी प्रवृत्तियों की जानकारी प्राप्त करें, उनके विचार, प्रश्नों को सुनें और सर पर प्यार भरे हाथ से सहलाएँ? शाम का भोजन परिवार के सभी सदस्य साथ मिलकर करें । टी.वी. शो देखने के बदले किसी देश-विदेश की कोइ उत्तम कहानी या घटना की बात करें तो कैसा? इस से उनको पठान का शौक़ भी बढेगा और उनके विचारों के या कल्पना के क्षितिज का विस्तार भी होगा । वे विचार ख़ुद उनके ही होंगे, मौलिक होंगे, ठीक है न? बच्चों के साथ शायद हमारा बचपना भी लौट आए, ऐसा भी तो हो सकता है ।

बच्चों के साथ आत्मभाव साधकर यह सब करने का हमारा सघन प्रयास और हमारा नि:स्वार्थ प्यार होगा तो रेतघड़ी की तरह फिसलती आज की युवा पीढ़ी की हमारे द्वारा हुई ग़ैर ज़िम्मेदाराना परवरिश की बंद मुठ्ठी कहीं खोल न दें । शायद, उसकी बंद मुठ्ठी में ही हमारे अस्तित्व और असलियत टिक जाएँ, ऐसा भी हो