बालदिवस पर विशेष

आइए बचपन सँवारें . . . .

छोटा सा नन्हा सा बचपन, मतलबी दुनिया की तिकडम भरी बातों से बेखबर! फिर भी हम उसे सँवार नहीं पाते। बचपन एक ऐसी अवस्था है, जहाँ जाति-धर्म-क्षेत्र, अच्छाई और बुराई कोई मायने नहीं रखते। बच्चे राष्ट्र की आत्मा हैं और अतीत को सहेज कर रखने की जिम्मेदारी भी इन मासूम कंधों पर है। बच्चों में राष्ट्र का वर्तमान करवटें लेता है और भविष्य के अदृश्य बीज पल्लवित-पुष्पित होते हैं। दुर्भाग्यवश अपने देश में बच्चों के शोषण की घटनाएं प्रतिदिन की बात हो गई हैं। नंगी आंखों से देखते हुए भी झुठलाना रहे हैं-चाहे वह निठारी कांड हो, अध्यापकों द्वारा बच्चों को मारना-पीटना हो, बच्चियों का यौन शोषण हो या अनुसूचित जाति व जनजाति के बच्चों का जातिगत शोषण।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित बाल चित्रकला प्रतियोगिता के दौरान बच्चों को पकडने वाले दैत्य, बच्चे खाने वाली चुडैल और बच्चे चुराने वाले लोगों को अपने पेंटिंग्स का आधार बनाया। यह दर्शाता है कि बच्चों के मस्तिष्क साथ हुये दुर्व्यवहार से ग्रस्त हैं। वे भय में डरावनी यादों के साथ जी रहे हैं।
बालश्रम की बात करें तो आँकडों के अनुसार भारत में पाँच करोड बाल श्रमिक हैं। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी भारत में सर्वाधिक बाल श्रमिक होने पर चिन्ता व्यक्त की है। कुछ बम आदि बनाने जैसे खतरनाक उद्योगों मे काम करते या किसी ढाबे में जूठे बर्तन धोत या धार्मिक स्थलों पर भीख माँगते नजर आते हैं अथवा कुछ लोगों के घरों में नौकर का जीवन जी रहे होते हैं।
सरकार ने सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा बच्चों को घरेलू बाल मजदूर के रूप में काम पर लगाने के विरुद्ध एक निषेधाज्ञा जारी की पर दुर्भाग्य से सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, नेतागण व बुद्धजीवी समाज के लोग ही इन कानूनों का मखौल उडा रहे हैं। पिछले दशक के मूल्यांकन में देश भर में करीब २६ लाख बच्चे घरों या अन्य व्यवसायिक केन्द्रों में नौकर की तरह काम करते पाए गए। अधिकतर स्वयंसेवी संस्थाएं या पुलिस खतरनाक उद्योगों में कार्य कर रहे बच्चों को मुक्त तो करा लेती हैं पर उसके बाद जिम्मेदारी से उन्हे स्थापित नहीं करतीं। ऐसे बच्चे किसी रोजगार या उचित पुनर्वास के अभाव में पुनः उसी दलदल में या अपराधियों की शरण में जाने को मजबूर हो जाते हैं।
बाल अधिकार आयोग के अनुसार बच्चों के अधिकारों को बढावा देने तथा उनके हितों की पूर्ति का ध्यान रखना जरूरी है। किसी एक व्यक्ति द्वारा इस कर्तव्य का वहन नहीं किया जा सकता। निजी और सार्वजनिक पदाधिकारियों में बाल अधिकारों के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करना भी उनका दायित्व है। कुछ देशों में तो लोकपाल सार्वजनिक विमर्शों में भाग लेकर जनता की अभिरुचि बाल अधिकारों के प्रति बढाते हैं एवं जनता व नीति निर्धारकों के रवैये को प्रभावित करते हैं। यही नहीं वे बच्चों और युवाओं के साथ निरन्तर सम्वाद कायम रखते हैं, ताकि उनके दृष्टिकोण और विचारों को समझा जा सके। बच्चों के प्रति बढते दुर्व्यवहार एवं बालश्रम की समस्याओं के चलते भारत में भी बच्चों के लिए स्वतंत्र लोकपाल व्यवस्था गठित करने की माँग है।
आज जरूरत है कि बालश्रम और बाल उत्पीडन की स्थिति से राष्ट्र को उबारा जाये। ये बच्चे भले ही आज वोट बैंक नहीं हैं पर आने वाले कल के नागरिक हैं। उन अभिभावकों को जो कि तात्कालिक लालच में आकर अपने बच्चों को बालश्रम में झोंक देते हैं, भी इस सम्बन्ध में समझदारी का निर्वाह करना पडेगा कि बच्चों को शिक्षा रूपी उनके मूलाधिकार से वंचित नहीं किया जा सक। गैर सरकारी संगठनों और सरकारी मात्र कागजी खानापूर्ति या मीडिया की निगाह में आने के लिये अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं करना चाहिए। उनका उद्देश्य इनकी वास्तविक स्वतन्त्रता सुनिश्चित करना और उन्हें एक सफल नागरिक बनाना होना चाहिए।
क्या हम भी भाग ले सकते हैं इस धार्मिक कार्य में। हाँ आज के समय में यह एक अनुष्ठान से कम नहीं। शुरुआत अपने घर से ही करें। आफ घर में कामवाली बीमारी का बहाना कर बच्चों को काम पर भेजे तो आप उससे काम न कराएं। एक दिन स्वयं काम करें।
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-जया 'केतकी'