मेरे बचपन के दोस्त थे दो | एक भरत परमार और दूसरा बाबू ! हम तीनों साथ खेलते, स्कूल जाते और गाँव के तालाब में नाहने भी |
एक दिन बाबू सुबह में ही आ गया |
"मैं अपने खेत जाता हूँ | वहीं कूएँ में नाहाकर लौटता हूँ तबतक तुम भी तैयार रहना | आज छूटती है तो हम दोनों शिव मंदिर खेलने जायेंगे |
बाबू खेत की ओर चला गया |
सुबसे खेत में गया हुआ बाबू दोपहर तक लौटा ही नहीं ! कहाँ गया होगा? ऐसा सोचकर मैं उसके घर गया | बाबू अपने घर भी नहीं था | उसके पिताजी भी खेत जाने को तैयार हो गए थे | शायद उन्हें भी चिंता थी |
मैंने कहा; "बाबू को जल्दी भेजिएगा | हमें शिव मंदिर खेलने जाना है |"
मैं घर लौट गया |
दो-तीन घंटे बाद हमारे बरामदे में खड़े-खड़े मैंने देखा | खलिहान की खुली जगह में से कुछ लोग इकठ्ठे होकर आ रहे थे | अभी तो शाम ढली ही नहीं है, फिर भी खेतों से इतने सारे लोग वापस क्यूं आ रहे होंगे? मैंने गौर से देखा तो हमारे गाँव के ही नंदलालभाई के फैले हुए दोनों हाथो में कुछ था |
मैंने दौड़ते हुए पिताजी को जानकारी दी | मेरे पिताजी गाँव की स्कूल में मुख्य शिक्षक थे | साथ ही पोस्ट के काम और थोड़ी डाक्टरी भी | ब्राह्मण और पढ़े-लिखे होने के कारण पूरे गाँव के सबके आदरणीय भी थे | हमारा घर खेत-खलिहान से गाँव में जाते सबसे पहला ही था | पिताजी के साथ मैं भी आँगन में आ गया |
सब लोग चुपचाप खड़े हो गए | पिताजीने हलके से सफ़ेद कपडे को हटाया - "बा....बू..?" उनके मुंह से दर्दभरी धीमी आवाज़ निकली |
सबकी बातों से पता चला की बाबू कूएँ की पैडी में खेल रहा था तो पैर फिसल गया था और सीधा कूएँ में |
बाबू के पिताजी को सभी आश्वासन दे रहे थे | फिर उसके अंतिम संस्कार भी हो गए |
बाबू अब कभी भी नहीं लौटेगा | यह बात मेरी समज से बहार थी | बाबू तो रोज मेरे साथ शिव मंदिर में खेलने आता था | हम बातें करते रहते थे | एक दिन उसने पूछा - "गाँव अभी भी बातें करता है मेरे मरने की?"
तब मैं कहता - "गाँव कुछ भी कहें, हमें क्या? बाबू, तुम आज भी ज़िंदा हो मेरे दिल में... !"
बस, उस दिन से आजतक मैं हमेशा शिव मंदिर दर्शन करने जाता हूँ मगर बाबू कहीं भी दिखाई नहीं देता | सपने में भी नहीं...!