गुजराती कविश्री सुरेश दलाल की दो कवितायेँ
स्काटलैंड यार्ड के
कुत्तों जैसे शब्द
कवि की तलाश में निकले हैं
और सदियों से
गुनाहगार पकड़ नहीं पाएं हैं
जो पकड़ा जाता है वह
कवि होने के संदेह में
कवि नहीं....!!!
खून का स्याही में रूपांतर माने कविता
कहते हैं अब वहां सूरज नहीं उगता
यातनाएं उगती हैं........
कहते हैं अब वहाँ रात नहीं ढलती
शीतल वेदनाएं जलती हैं.........
टैंकों के हल से होती खेती की बात सुनकर
यहाँ बैठे कंपकंपा उठाते हैं
मैं...हम... आप... वे.... सभी ही
चलो इतना तो तय करें
खून का रंग लाल हैं |
This entry was posted on 8:02 PM
and is filed under
गुर्जरी
.
You can follow any responses to this entry through
the RSS 2.0 feed.
You can leave a response,
or trackback from your own site.
4 comments:
भीतर तक झकझोर देने वाली कविता... "
चलो इतना तो तय करें
खून का रंग लाल हैं |".. इन पंक्तियों ने रक्तसंचार बढ़ा दिया..
ओह! दोनो ही रचनायें बेहद संवेदनशील ……………अन्दर तक झकझोर गयीं।
सूरेश जी की छोटी कविताएं बड़ी बात कह गई हैं।
कहते हैं अब वहां सूरज नहीं उगता
यातनाएं उगती हैं........
कहते हैं अब वहाँ रात नहीं ढलती
शीतल वेदनाएं जलती हैं.........
टैंकों के हल से होती खेती की बात सुनकर
यहाँ बैठे कंपकंपा उठाते हैं
मैं...हम... आप... वे.... सभी ही
चलो इतना तो तय करें
खून का रंग लाल हैं......................बहुत है वेदना भरी ...अपील पंकज जी ....दूसरी कविता में bhi कवी का दर्द जी !!!!!!!!!धन्यवाद हमारे बीच लाने का !!!!!!!
Post a Comment