रूढ़ियाँ - पंडित प्रभाकर पाण्डेय
मैं हिन्दू हूँ
, जी हाँ एक हिन्दू,
कुछ गलत रुढ़ियों एवं
प्रथाओं का एक बिन्दू,
हाँ मैं एक हिन्दू.

ना-ना-ना,

हिन्दू तक तो ठीक था,पर जानते नहीं,
मैं हिन्दू में ही हूँ,
ब्राह्मण, पंडि, चंदनधारी,
अच्छे कर्मों का
अधिकारी.
छूना मत मेरा भोजन
वर्ना वह अपवित्र कहलाएगा,
मैं रह जाऊँगा भूखा-भूखा, जानते नहीं,

तूझे मेरा भोजन छिनने का पाप लग जाएगा.
मैं भी जानता हूँ, इस
अन्न को तूने ही उगाया है,
कूट-पीसकर चावल
बनाया है,
ये मिर्च व मसाले हैं तेरे खेत के,
नमक को भी तूने ही सुखा
या है.
जहाँ तक है इस बरतन का
सवाल,
तूने ही दिया
इसको यह आकार.
कुछ भी हो तुम क्षुद्र ही
तो हो,
पर मैं तुमसे ऊँचा हूँ, ब्राह्मण
हूँ.
ये ठीक है इस कूप को खोद
ने में,
हर जीव को जल देने में,
तूने खून-पसीना एक किया,
पर अब अपना लोटा ना डुबा,
इस वक्त इसे ना करो अपवित्र,
पहले मुझे जल भर लेने दो,

हींकभर पी लेने दो, वर्ना
मैं जल बिन मीन हो जाऊँगा.

देखो कितनी तेज बारिश है,

मैं भीग रहा हूँ, निकलो झोपड़ी से बाहर,
मैं कैसे बैठूँ तेरे साथ, अपवित्र हो जाऊँगा.
ब्राह्मण हूँ.
मैंने कब कहा कि
ये कपड़े,
जो मैंने पहने हैं,
तूने नहीं बनाए,
अरे साफ कर दिए तो क्या हुआ,

यह अपवित्र हुआ ?
पर मेरे छूने से पवित्र हुआ,

मैं इतना देखता चलूँ तो पागल हो जाऊँगा,
देख ! इसे अब मत छूना,मैं
ब्राह्मण हूँ.
आओ बैठो पैर दबाओ,थोड़ा ठंडा
तेल लगाओ,
करो धीरे-धीरे मालिश, दूँगा तू
झे ढेर आशीष,
पर तुम मुझको छूना नहीं, अपवित्र हो जाऊँगा.

ब्राह्मण हूँ.

मैं मानता हूँ, तेरे बिन मैं जी नहीं सकता,

हर वक्त,हर क्षण मुझे तेरी जरूरत है,
जबतक तू ना देता बनाकर शादी का डाल,
नहीं हो सकता मेरा शुभविवाह.
पर मैं तुमसे ऊँचा हूँ, ब्राह्मण
हूँ.
मेरी माँ भी कहती
थी, मेरे पैदा होने के वक्त,
तू माँ के पास रह रही थी, अरे यह क्या ?
मेरे जमीं पर गिरने के वक्त तो,
माँ दर्द से छटपटा रही थी,
उस समय तू मुझे सीने से लगाए,
प्रेम से चुमचाट रही थी.
पर देख अब मुझे
मत छूना, ब्राह्मण हूँ.
मैंने धारण किए जनेऊ,मा
थे पर चंदन,
करुँगा प्रभु का पूजन,

पर तू कर पहले मेरा पूज,
मैं ब्राह्मण हूँ.
मैं स्पष्ट कहता हूँ,
तेरी कृपा से ही जिंदा रहता हूँ,

पर इससे क्या,यह तेरा एहसान नहीं,
मेरा ही एहसान है
तुझपर.
मैं ब्राह्मण हूँ, हूँ, हूँ.
छूना मत.
अपवित्र हो जाऊँगा.



दिन-प्रतिदिन - मुन्ना त्रिपाठी

दिन, प्रतिदिन,
हर एक पल,
हमारी सभ्यता और संस्कृति में

निखार आ रहा है,
हम हो गए हैं,
कितने सभ्य,

कौआ यह गीत गा रहा है।
पहले बहुत पहले,

जब हम इतने सभ्य नहीं थे,
चारों तरफ थी खुशहाली,
लोगों का मिलजुलकर,

विचरण था जारी,
जितना पाते,
प्रेम से खाते,
दोस्तों, पाहुनों को खिलाते,

कभी-कभी भूखे सो जाते।
आज जब हम
सभ्य हो गए हैं,
देखते नहीं,
दूसरे की रोटी

छीनकर खा रहे हैं,
और अपनों से
कहते हैं,
छीन लो, दूसरों की रोटी,
न देने पर,
नोच लो बोटी-बोटी,
क्योंकि हम सभ्य हो गए हैं,
पिल्ले हो गए हैं।
बहुत पहले घर का मालिक,
सबको खिलाकर,
जो बचता रुखा-सूखा,
उसी को खाता,
भरपेट ठंडा पानी पीता,
आज जब हमारी सभ्यता,
आसमान छू रही है,
घर का क्या ?
देश का मालिक,
हींकभर खाता,
भंडार सजाता,
चैन से सोता,
बेंच देता,
देशवासियों का काटकर पेट,
क्योंकि हम सभ्य हो गए हैं।