ताकि मेरे भी घर सके चाँदनी

नहीं उतर पाती अब, मेरी छत पर चाँदनी
सूरज की किरणें भी दबे पाँव आती हैं।
विषाल होता जा रहा है प्रतिदिन,
गगनचुम्बी इमारतों का दायरा।
पहले नहीं था टॉवरों का झुरमुट,
अब फैल गया है उनका इलाका।
अलग-अलग आकार और प्रकार हैं,
कोई जमीन पर गड़ा है, कोई अटारी पर खड़ा ।
रोकते हैं आने से रोषनी और चाँदनी,
आ गए हैं आड़े सूरज और चाँद के।
अब चाँदनी तक पहुँचने को चाहिए,
वायुरथ की अतितीव्र उड़ान।
ताकि मेरे भी घर आ सके चाँदनी,
ला सकूँ थोड़ी सी रोषनी,
टॉवरों के कंधों पर सवार।


उफान का जीवन क्षणिक है!


उस दिन देखा था उफनते हुए प्यार को,
एक कोषिष की थी पहचान लूँ हकीकत,
पर नहीं समझ आया, फर्क!
सब ठीक ही तो है, मिलना, और मिलना,
मिलते रहना, लगातार मिलना,
फिर अचानक, खामोष हो जाना,
बिना कुछ कहे!
सब कुछ पाकर भी, कुछ पास नहीं,
साथ भी नहीं, आसपास भी नहीं,
ऐसा क्यूँ होता है,
क्यों बदल जाते हैं इतनी जल्दी अर्थ?
मत भूलो! उफान का जीवन क्षणिक है,
कब आ जाए उतार, कौन जाने?