लसाघर । यह शब्द बोलने और सुनने में मन तंरगायित हो उठता है । बचपन के मित्रों की छवि झिलमिलाने लगती है । कोई पूछता है - कैसे हो?

तब हम जवाब देते हैं - जलसा !

उस वक़्त जलसा या जल्सा शब्द बोलने में जो रोमांच का अनुभव होता, उसके मूल अर्थ को पाने की ज़माने कभी कोशिश नहीं की थी । धीरे-धीरे खेलने-कूदने की उम्र पूरी हो गयी । ज़िम्मेदारियाँ बढ़ने लगीं । तब भी कोई पूछता तबियत के बारे में तो हम सहजता से बोल पड़ते - जलसा !

मगर उस वक़्त तो ज़िम्मेदारियाँ सिर पर सवार हो रही थीं । पूर्ण रूप से हम पर सवार नहीं हो पाई थीं । अब तो वो पूर्णरूप से खिल उठी हैं । मगर कोई नहीं पूछता कि कैसे हो? पहले जो मित्र साथ खेलते-कूदते, वह भी तो नहीं । बहुत आश्चर्य होता है कि इंसान पुख़्त हो, अपने संसार में डूबकर कमाने-धमाने लगे । बच्चे भी हो जाएँ, तब पूछना भूल जाते हैं - कैसे हो ? ऐसा क्या है इस प्रश्न में?

कई बार हमसे पूछा जाता यह प्रश्न हमें ही अन्दर से खुरचने लगता है बरमे की तरह । प्रत्येक प्रश्न का एक समय खंड होता है और उसे पूछने वाले का भी । कैसे हो? यह प्रश्न किसी भी समय, किसी से भी नहीं पूछ सकते । इससे कहीं विनयभंग हो ऐसा अन्य व्यक्ति के चहरे पर स्पष्ट दिखे ऐसा भी हो सकता है । यह स्थिति दयनीय होती है । प्रश्न जिससे पूछा गया है वह अंदर से जितना खुरचता है उतना ही प्रश्न पूछने वाला अंदर से उलीचता है । इस तरह एक साथ दो व्यक्तियों को, दो-धारी तलवार जैसे ये प्रश्न पीड़ा देता है । ऐसे क्षण में कोई मान बैठे की मेरा प्रश्न उसने सूना नहीं होगा । शायद इस कारण प्रत्युत्तर न मिला । और फिर वही प्रश्न कर बैठे- कैसे हो? इंसान दुबारा पूछे गये इस प्रश्न से रहा-सहा भी पिघल जाता है । मेरे सामने पड़ी इस मोमबत्ती में मुझे कई चहरे पिघलते दिखाई देते हैं । मगर, उन चेहरों की रेखाओं को देखकर मुझे कैसे हो? पूछने का मन नहीं होता । उस चेहरों में कुछ ऐसे भी हैं, जो किसी हास्य कलाकार को सुनकर घर लौटते हों । जिन्होंने हास्यरस को बराबर समझा हो । अगर उस हास्यरस को पचाने के बाद सत्य की समझ हुई हो तब उस चहरे के गांभीर्य को भी समझना ज़रूरी लगता है । हास्यरस में डूबने के बाद का गांभीर्य किसी की अर्थी ले जाने वालों के चहरे पर देखने नहीं मिलता । गुजराती में शाहबुद्दीन राठौड़ जो हास्यरस परोसते हैं, उसमें विदूषकवृत्ति नहीं होती । उसमें इंसान की करुणा को जीवन के दौरान सहजता से लेने का रिहर्सल होता है । ऐसे रिहर्सल में हिस्सेदारी करने वाला इंसान अपने दुःख-दर्द को बाँटकर अन्य का सुख उधार लेना नहीं चाहता । वह चाहता है सिर्फ़ अपनी करुणा में से अन्य का सुख । इसलिए ही वह अपने चहरे पर की रेखाओं को हास्य की रंगोली बनाने के लिए मनाता है । फिर प्रतिसाद में मिला आपका स्मित उसमें रंगों की आभा बना सके तो भी अच्छा ।

जीवन में जैसे-जैसे ज़िम्मेदारी बढ़ती जाए, उसके साथ-साथ इंसान की परिपक्वता का युवाकाल खिलाना चाहिए । ज़िम्मेदारी के भार तले दबे इंसान को मैं बेलगाडी के नीचे चलने वाले कुत्ते की समझ के साथ तोलता हूँ । ज़िम्मेदारी तो सभानता की निशानी है । वह लोकशाही और आत्मविश्वास की निशानी है । हमारे अन्दर किसी ख़ास प्रकार की शक्ति को पहचानकर ही, परिस्थिति हमारे सामने ज़िम्मेदारी रखकर महत्वपूर्ण क़दम उठाने का मौक़ा देती हैं । हमें उससे मुँह फेरना नहीं चाहिए । उसके साथ चलना है । उस वक़्त रास्ते में कोई मिले और पूछ बैठे - कैसे हो?

कोई इस प्रश्न को न समझ पाए तो उसका मर्म हमें समझाना है । मानवता के इस कार्य को आप बोलने के बदले हास्य के द्वारा भी कर सकते हैं । अथवा संक्षिप्त में ही कहा दो यार - जलसा !

जलसा शब्द मेरे ख़ून में बहता है । मगर उसका प्रकट होना प्रतिपल संभव नहीं है । वह शब्द ही ऐसा है, जो अपनी मस्ती में रहता है । इसलिए कभी उसे मौज न हो और प्रकटीकरण थम जाए तब आप ही पूछ बैठो- जलसा का क्या हुआ?

तब कहने का मन हो जाए की जलसा का कोई पर्याय नहीं हो सकता । आप खुद ही बोल के अनुभव करो - जलसा कैसा जम गया !

शरद पूनम के दिन दरिया से पूछो और प्रत्युत्तर जलसा या जल्सा मिले तो मान लेना की किसी ऐसी नदी ने आज उसे रिझा लिया है, जिसकी उसे चाह थी । हमारी चाहतो को रिझाने वाला मिल जाए तब जल्सा को अलमारी में बंद करने की गुस्ताखी मत करना ।

क्योंकि उसका कोई आकार, रंग या रूप नहीं होता है । हाँ, उसका अनुभव ही कितना मस्तीखोर लगता है? इसलिए आपको भी कोई रिझाने वाला ख़ुशनसीब होगा । संतोष का अनुभव करेंगे अपने खिले हुए चहरे को देखकर । ऐसा निर्दोष दूसरा कौन होगा भला?

अपने चहरे का रंग देखा है? ज़रा देखो तो सही ! आपके चहरे की लाली अब केसरिया क्यूं लगती है? केसरी रंग तो पलाश का है । बसंत ऋतु के गहरे असर में आप तो ऐसे पटक गए हैं की बात ही मत पूछो । आप मेरा कहा मानो । आज ही ब्लड-टेस्ट करवा लो । शायद आपको...? चिंता मत करो । सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा । जाने दो यार ! आपको कोई भी टेस्ट करवाने की ज़रूरत नहीं है । मैं जान गया हूँ की अब आपके ख़ून में भी घुल गया है, मेरा यह शब्द जल्सा आपके चहरे का रंग केसरिया क्यूं होने लगा है, जानता हैं? जलसा का रंग यानी पलाश का उअपवन । जिसके पेट में आग हो, सूखे होंठ चिपक गए हों, ऐसे इंसान की कोई तबियत पूछे - कैसे हैं? तब प्रत्युत्तर में सिर्फ़ और सिर्फ़ जल्सा ही सुनाने मिले तब पलाश न हो तो ओर क्या हो सकता है भला?

जिस इंसान के घर का नाम जल्सा हो, उसे देखकर हमें सिर्फ़ ख़ुश होने जैसा कुछ नहीं होते । इसमें कीं बात छलावा के अलावा कुछ भी न मिले, ऐसा भी हो सकता है । कई बार इंसान बाज़ार से निकले और एक भी दृश्य उसकी आँखों में बस न जाए उसे क्या कहें? ऐसे इंसान को दृष्टिहीन कह सकते हैं । जिसकी ईश्वर द्वारा दी हुई आँखें सिर्फ़ काँच बनाकर रह जाएं या किसी के ह्रदय में वे चुभती हों । सड़क पर हुई दुर्घटना या किसी की चश्मदीद ह्त्या के बाद भी उस इंसान से कोई पूछे- कैसे हो? तब उसके चहरे पर विषाद ही देखने मिले ।

मगर शाम होते ही घर के आँगन में प्रवेश करते ही थका हुआ फूल पूछ बैठे - कैसे हो? तो क्या जवाब देंगे? ऐसा समय कसौटी का होता है । किसी की लुप्तता का दुःख मन पर हावी हो और किसी की लुप्तता की ओर की गति हो, तब क्या करें? उस फूल को अपने सभी दुखों को छुपाकर कहना पडेगा जलसा ! इस शब्द को सुनकर मुरझाने वाला वह फूल अपने उत्तराधिकारी को अपनी वरसाई देते हुए कहेगा - अभी भी इस घर के आँगन में खिलाना और खेलने जैसा है ।

यहाँ और कुछ भी नहीं स्पर्शता, कोई ख़ास अनुभव नहीं होता है । यहाँ जो भी मिलता है, निर्दोष भाव से मिलता है । उसका नाम है जल्सा । ऐसे घर को मैं जलससाघर कहता हूँ और आप?