धरती
तुम वो हो जो -
बालू के कण के समान हो
सब के साथ रहकर भी अकेली
कण-कण में बिखरी हुई
तुम वो मिट्टी हो
सब के साथ चीपकी हुई
मगर सबका दुःख झेलती हुई
तुम, तुम हो-
जिसका अस्तित्त्व होते हुए भी
खुद कुछ नहीं
न अभिमान तुझे
न सम्मान की ईच्छा
तुम सह रही हो सबको
तुम अपनी छाती को चीरती हुई
दे रही हो प्रत्येक सजीवों को
एक नया जीवन
हाँ, तुम बालू का कण हो, रेणु हो
और तुम ही धरती !
जिसके बिना जीवन ही कहाँ?
मगर तेरे समर्पण को देखने की
फुर्सत ही कहाँ और किसे है यहाँ?
तुम चुपचाप सह रही हो, हंसती हुई
ईठलाती सी.... दूसरों की नज़र में
जानता हूँ -
तुम्हारे अंदर भभकता हुआ
लावा भरा है
फिर भी तुम शांत हो
तुम अगर करवट भी बदलती हो
तो तहस-नहस हो जाती है ये दुनिया
तुम्हारी विडम्बना है ये...
फिर भी
दूसरों के सुख के लिएँ सदा तुम
अडिग, अविचल.... तेरे ईस रूप को
मेरा नमन !
समय : 5 .30 AM 21/10/2010
This entry was posted on 9:09 PM
and is filed under
कविता
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8 comments:
सहनशीलता की पराकाष्ठा है धरती.....
जीवनदायिनी सत्यनिष्ठा है धरती....
रज कणों के संस्कार ले कर सजी सुन्दर रचना!!!!
बहुत गंभीर कविता.. जीवन के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध !
हाँ, तुम बालू का कण हो, रेणु हो
और तुम ही धरती !
जिसके बिना जीवन ही कहाँ?
मगर तेरे समर्पण को देखने की
फुर्सत ही कहाँ और किसे है यहाँ?.......धरा को प्रणाम जी .और आप को भी इस सुन्दर रचना के लिये
रेत के कण की व्यथा और ताकत को आपने बखूबी पहचाना है और कविता रूप में ढाला है बहुत सुन्दर...
बेहतरीन्……………दूरदृष्टि ……………अति सुन्दर भावाव्यक्ति।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (22/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
हाँ, तुम बालू का कण हो, रेणु हो
और तुम ही धरती ...सुंदर रचना बालू का कण ..धरा...पृथ्वी..सहनशीलता
और समर्पण की भावना.. सुंदर बेहतरीन रचना त्रिवेदी जी ..सादर ..
और हाँ इन सबके बीच मेरे नाम को सार्थक करती हुई ...धन्यवाद्.. हा हा हा..!!!
अरुणजी, अनुपमाजी, ट्रवेल, डॉ. नूतन, वंदनाजी और रेणु, आप सब ने इस कविता को अमूल्य बना दिया | धन्यवाद |
bahut achhi aur saargarvit rachna, badhai sweekaaren.
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