भ्रूण ह्त्या...
इंसान
स्वर्गीय दुला भाया काग
आज बेटी दिवस है.....
बेटा वारस है, बेटी पारस है |
बेटा वंश है, बेटी अंश है |
बेटा आन है, बेटी शान है |
बेटा तन है, बेटी मन है |
बेटा मान है, बेटी गुमान है |
बेटा संस्कार, बेटी संस्कृति है |
बेटा आग है, बेटी बाग़ है |
बेटा दवा है, बेटी दुआ है |
बेटा भाग्य है, बेटी विधाता है |
बेटा शब्द है, बेटी अर्थ है |
बेटा गीत है, बेटी संगीत है |
बेटा प्रेम है, बेटी पूजा है |
अपर्णा भटनागर
स्वागत ! "विश्वगाथा" के आँगन में पिछले रविवार को हमने अपनी अलग अलग विधाओं में आप सब के लिएँ किसी एक "अतिथि" के अंतर्गत ब्लॉग की दुनिया की जानीमानी कवयित्री रश्मि प्रभा की कविता प्रस्तुत की थी |
इस बार भी हम ऐसी ही एक सशक्त कवयित्री अपर्णा भटनागर को प्रस्तुत रहे हैं | अपना एक काव्य संग्रह "मेरे क्षण" देने वाली यह कवयित्री जानती है कि जल्दी पुस्तक देने से अच्छा हो कि उच्च स्तरीय रचनाएं लिखने का आनंद लेना और कविता भावकों के ह्रदय में स्थान पाना ही बड़ा सौभाग्य होता है | ईस कवयित्री के कलम से अद्भुत कविता से हम सब को प्रसन्न कर देगी और कुछ सीख भी ... | - पंकज त्रिवेदी
मैं हूँ न तथागत - अपर्णा भटनागर
हाँ, मैं ही हूँ ..
देशाटन करता
चला आया हूँ ..
सुन रहे हो न मुझे?
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि !
यूँ ही युगांतर से
नेह -चक्र खींचता
चलता रहा हूँ -
मैं , हाँ मैं
बंजारा फकीर तथागत ..
तब भी जब तुम
हाँ , तुम ..
किसी खोह में
ढूंढ़ रहे थे
एक जंगली में सभ्य इंसान ..
यकायक तुम्हारी खोज
मकड़ी के जालों में बुन बैठी थी
अपने होने के परिधान !
और .. और ..
तुम उसी दिन सीख गए थे
गोपन रखने के कायदे .
एक होड़ ने जन्म लिया था
और खोह -
अचानक भरभरा उठी थी ..
बस उस दिन मैं आया था
अपने बोधि वृक्ष को सुरक्षित करने -
हाथ में कमंडल लिए -
सभ्यता का मांगने प्रतिदान !
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि !
एक युग बीत गया -
तुम हलधर हुए ..
तब मैं तुम्हारे हल की नोंक में
रोप रहा था रक्त-बीज ..
वे पत्थर सूखे
अचानक टूट गए थे
और बह उठी थी सलिला ..
शीतल प्रवाह .
और उमग कर न जाने कितने उत्पल
शिव बन हुए समाधिस्थ ..
इसी समाधि के भीतर
मैं मनु-श्रद्धा का प्रेम प्रसंग बना था
और तब कूर्मा आर्यवर्त होकर सुन उठी थी ..
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि !
मैं फिर आया था
तुम इतिहास रच रहे थे ..
सिन्धु , मिस्र, सुमेरिया ..
और भी कई ..
अक्कादियों की लड़ाई ..
हम सभी लुटेरे हैं ..
और तब लूट-पाट में
नोंच-खसोट में ..
मैंने आगे किया था पात्र!
भिक्षा में मिले थे कई धर्म ..
बस उनके लिए
हाँ, उनके लिए सुठौर खोजता ..
निकल आया था
तुम्हारे रेणु-पथ पर
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि !
तुम्हें शायद न हो सुधि ..
पर मैं कैसे भूल जाऊं
तुम्हारी ममता ..!
सुजाता यहीं तो आई थी
खीर का प्याला लिए ..
मेरी ठठरी काया को
लेपने ममत्त्व के क्षीर से ..
मैं नीर हो गया था ..
मेरे बिखरे तारों को चढ़ा ,
वीणा थमा बोली थी -
न ढीला करो इतना
कि साज सजे न
न कसो इतना
कि टूट जाए कर्षण से ..
बस उसी दिन
यहीं बोधि के नीचे
सूरज झुककर बोल उठा था -
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि !
तब से मैं पर्यटन पर हूँ ..
तुम साथ चलोगे क्या ?
कितने संधान शेष हैं ?
हर बार जहां से चलता हूँ
लौट वहीँ आता हूँ ..
पर लगता है सब अनदेखा !
मैं कान लगाये हूँ
अपनी ही प्रतिध्वनि पर -
किसी खाई में
बिखर रही है ..
तुम सुन पा रहे हो ..?
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि !
इस कमंडल में हर युग की
हाँ , हर युग की समायी है -
मुट्ठी-भर रेत
इसे फिसलने न दूंगा ...
मैं हूँ न तथागत
हर आगत रेत का ..
अतिथि
दादाजी और पौत्र

दादाजी यानी दादाजी ! उनके मुकाबले पापा कहाँ? दादाजी को अब शहरीजन बनाना पड़ा है | दादाजी प्रात: जागते हैं | दूध की थैली ले आते हैं, खुद ही पानी गर्म करके स्नान करते हैं, पूजा-अर्चना करते और पौत्र को प्यार से सहलाते हुएं जगाते हैं, उसे स्कूल तक छोड़ने जातें या सब्जी भी ले आतें | दादाजी अखबार पढ़ते हैं तो पौत्र ही चश्मे लाकर देता | दादाजी को तो फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत ! समय बीताने के लिएँ वह हमेशा कार्यशील ही रहतें | पूरा दिन एकांत में दादाजी, पौत्र के स्कूल से लौटने और उसके स्वागत के लिएँ तैयार रहते | दादाजी को पौत्र का ख़याल रखना होता और पौत्र को दादाजी का ! मम्मी को तो घर का काम ही ईतना कि बेचारी को समय ही कहाँ ? उनकी कईं बातें है, अगर सास होती तो शायद कह पाती या नहीं भी ! पप्पा को तो ऑफिस का काम, बोस के कीच-कीच और सामाजिक ज़िम्मेदारी भी तो.... ! किसे फ़ुर्सत है?
दादाजी को लगे कि पौत्र को पढाऊँ | कभी-कभी किताबों के बसते के बोज से छूटा हुआ पौत्र थोडा-सा खेलें तो मम्मी की बूम सुनाई देती; "बेटे, अपना होमवर्क ख़तम कर ले, पप्पा लड़ेंगे | दादाजी को तो क्या काम है? वो तो कहानियाँ ही सुनाते रहेंगे | आजकल के बच्चों को तो पढ़ाई अच्छी ही नहीं लगती....|" दादाजी मौन रहते हैं, हमेशा | पौत्र पढ़ता है | दादाजी देखते हैं | तड़के से जगे हुए दोनों की आँखों में फर्श से चमकता हुआ सूर्य प्रकाश आँखों में फैलता है तो मेघधनुषी रंगों से विविध आकर उभर आते हैं | पौत्र कुछ पल के लिएँ खुश हो जाता है | दादाजी यह सब जानते हैं | दादाजी बारीकी से देखते हैं | पौत्र गड़बड़े अक्षरों से नोटबुक में कुछ लिखता है | वह ईंगलीश मीडियम में हाँ | दादाजी अंग्रेजी बोल सकते हैं, लिख सकते हैं मगर वह तो अंग्रेजों के समय का ! मम्मी कहती है कि आजकल की पढ़ाई में दादाजी को क्या समज होगी ? मम्मी-पप्पा की पीढी आधी-अधूरी है | वह अंग्रेजों के ज़माने की अंग्रेजी नहीं जानते और वर्त्तमान की शिक्षा में उनकी चोंच डूबती नहीं ! दादाजी जब स्कूल में पढ़ते थे तब लोग कहतें कि मास्टर तो फक्कड़ अंग्रेजी बोलते हैं और लिखते भी ! उस ज़माने में लोग अंग्रेजी में अर्ज़ी लिखवाने आते | दादाजी का मान-सम्मान और ज्ञान लोगों के दिलों में अंकित था | आज मम्मी को पता नहीं कि दादाजी कौन है ? पप्पा तो केवल नौकरी ही करें, दादाजी के प्रति उनका मौन पौत्र को आकुलाता है, वह क्या कहें पप्पा को?
उसे तो मजा आता है, दादाजी के साथ | कहानियाँ सुनाने में, खेलने में और उनकी लचकती हुई लिस्सी त्वचा पर हाथ फेरने में ! ईस स्पर्श से दंतहीन मुंह वाले दादाजी हंसने लगे तो खूब आनंद आता ! पौत्र उन्हें मुँह खुलवाकर देखता है | घीस चुके, लाल-गुलाबी मसूड़ों को देखकर पौत्र पूछता है; "दादाजी, आप रोटी कैसे चबाते हैं? आपको तो दांत ही नहीं है !" फिर से दादाजी हंसते, बिलकुल भोलेपन से | मोतियाबिंद के कारण कमजोर हुई आँखों की पलकें थोड़ी सी ऊपर उठे | दीवार पर रहे दादीमा की तसवीर को देखें, पौत्र दादाजी को देखें और दादाजी की आँखों में से दो-चार बूंद गिरने गले |
दादाजी कहें; "बेटा, अब हमें खाने के स्वाद कहाँ? रोटी को तो दाल में भीगोकर नरम करने के बाद खाना | कईं बरसों तक हमने खाया, अब तो तुम्हें खाना होगा, हं बेटा !"
दादाजी पौत्र का अमीदर्शन करते हैं, प्रत्येक सुबह में...|
प्रार्थना
सुर
बेटी और माँ
तुम बेटी हो ईतना ही काफ़ी नहीं |
सत्यवचन से स्वीकृति
मालवेश्वर भोज सुबह-सुबह रथ पर सवार होकर जा रहे थे । रास्ते में एक ब्राह्मण दिखा । उसे देखकर राजा भोज ने रथ रोकने का आदेश दिया । भोज ब्राह्मणों का आदर करते थे । उन्होंने ब्राहमण का अभिवादन किया तो ब्राह्मण ने आँखें मूँद ली ।
ऐसा करने पर राजा ने ब्राह्मण से कारण पूछा; "आपने आशीर्वाद देने के बदली आँखें क्यों बंद कर दी...?"
ब्राह्मण ने कहा; "आप वैष्णव है, अनजाने में भी किसी हो नुकसान नहीं कर सकते । ब्राह्मण के प्रति तो हरगिज़ नहीं । इस कारण मुझे आपसे कोइ भय नहीं है । सच बात यह है कि आप किसी को दान नहीं देते । कहते हैं कि सुबह-शाम किसी कंजूस का मुँह देखें तो आँखे बंद कर देनी चाहिए । मैंने भी यही किया । दधीचि और कर्ण भी अपनी दान-वृत्ति के कारण मृत्यु के बाद भी अमर हो गये ।"
राजा भोज ने कहा; "हे ब्राह्मण, आपने मेरी आँखें खोल दी... मैं आपको दंडवत प्रणाम करता हूँ ।"
यूं कहकर राजा भोज ने ब्राह्मण के सच बोलने की तारीफ़ की और एक लाख मुद्राओं का दान भी दिया । साथ ही अपने राज्य में से ज़रूरतमंद को दान देने की भी घोषणा कर दी । सत्य को सहस के साथ बोलना चाहिए । सत्य भाषण करनेवाला सच्चे सुननेवालों को नया मार्ग दिखाता है।