योगराज प्रभाकर की पाँच लघुकथाएँ
//सलाम (लघुकथा) //
सूरज ने फक्कड़ से कहा:
"मुझे झुक कर सलाम कर !"
"तुझे सलाम करूं ? मगर क्यों?"
"ये दुनिया का दस्तूर है, चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं !"
"करते होंगे, मगर मैं तेरे आगे सिर नहीं झुकऊँगा !"
"मगर क्यों ?"
"क्योंकि तू बहुत कमज़ोर और निर्बल है, जिस दिन सबल हो जाएगा मैं तेरे आगे सर ज़रूर झुकाऊंगा !"
"कमज़ोर और निर्बल ? और वो भी मैं ?"
"हाँ !"
"तो अगर मैं ये साबित कर दूं कि मैं सबल हूँ, तो क्या तुम मुझे सलाम करोगे?"
"एक बार नही सौ सौ बार सिर झुकाकर सलाम करूँगा !"
"तो फिर जल्दी से बतायो कि तुम्हें यकीन दिलवाने के लिए मुझे क्या करना होगा ?
फक्कड़ से मुस्कुराते हुए कहा:
"एक बार, सिर्फ एक बार रात में उदय होकर दिखा दो !"
---------------------------------------------------------------------------
//संतान//
मैं तकरीबन २० साल के बाद विदेश से अपने शहर लौटा था ! बाज़ार में घुमते हुए सहसा मेरी नज़रें सब्जी का ठेला लगाये एक बूढे पर जा टिकीं, बहुत कोशिश के बावजूद भी मैं उसको पहचान नहीं पा रहा था ! लेकिन न जाने बार बार ऐसा क्यों लग रहा था की मैं उसे बड़ी अच्छी तरह से जनता हूँ ! मेरी उत्सुकता उस बूढ़े से भी छुपी न रही , उसके चेहरे पर आई अचानक मुस्कान से मैं समझ गया था कि उसने मुझे पहचान लिया था ! काफी देर की जेहनी कशमकश के बाद जब मैंने उसे पहचाना तो मेरे पाँव के नीचे से मानो ज़मीन खिसक गई ! जब मैं विदेश गया था तो इसकी एक बहुत बड़ी आटा मिल हुआ करती थी नौकर चाकर आगे पीछे घूमा करते थे ! धर्म कर्म, दान पुण्य में सब से अग्रणी इस दानवीर पुरुष को मैं ताऊ जी कह कर बुलाया करता था ! वही आटा मिल का मालिक और आज सब्जी का ठेला लगाने पर मजबूर? मुझ से रहा नहीं गया और मैं उसके पास जा पहुँचा और बहुत मुश्किल से रुंधे गले से पूछा : "ताऊ जी, ये सब कैसे हो गया ?" भरी ऑंखें लिए मेरे कंधे पर हाथ रख उसने उत्तर दिया:
"बच्चे बड़े हो गए हैं बेटे !"
--------------------------------------------------------------------------------
//बेग़ैरत//
महाभारत का घटनाचक्र एक बार फिर से दोहराया गया ! लेकिन इस बार जुआ युधिष्ठिर नहीं बल्कि द्रौपदी खेल रही थी ! देखते ही देखते वह भी शकुनी के चंगुल में फँसकर अपना सब कुछ हार बैठी ! सब कुछ गंवाने के बाद द्रौपदी जब उठ खडी हुई तो कौरव दल में से किसी ने पूछा:
"क्या हुआ पांचाली, उठ क्यों गईं?"
"अब मेरे पास दाँव पर लगाने के लिए कुछ नहीं बचा " द्रौपदी ने जवाब दिया!
तो उधर से एक और आवाज़ आई:
"अभी तो तुम्हारे पाँचों पति मौजूद है, इनको दाँव पर क्यों नहीं लगा देती ?"
द्रौपदी ने शर्म से सर झुकाए बैठे पांडवों की तरफ हिकारत भरी दृष्टि डालते हुए जवाब दिया:
"मैं इतनी बेग़ैरत नही कि अपने जीवन साथी को ही दाँव पर लगा दूँ!"
------------------------------------------------------------------------------------
//वो भारत//
आज वह अखबार पढते हुए ना जाने क्यों इतना उदास था ! इसी बीच उसकी नन्ही बच्ची ग्लोब लेकर उसके पास आ गई और कहने लगी:
"पापा, आज क्लास में बता रहे थे कि भारत ऋषि मुनियों और पीर फकीरों की धरती है, और उसको सोने की चिड़िया भी कहा जाता है ! आप ग्लोब देख कर बताईये कि भारत कहाँ हैं ?"
उसकी नज़र सहसा अखबार के उस पन्ने पर जा टिकी जो कि हत्या, लूटपाट,आगज़नी, दंगा फसाद, आतंकवाद, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, भूख से होने वाली मौतों,धार्मिक झगड़ों और मंदिर-मस्जिद विवादों से भरा पड़ा था ! उसकी बेटी ने एक बार फिर उसका कन्धा झिंझोड़ कर पूछा:
"बताईये ना पापा भारत कहाँ हैं ?"
उसने एक लम्बी सी ठंडी आह भरी, और बेटी के सिर पर हाथ रख कर जवाब दिया:
"मेरी बेटी, जिस भारत कि बात तुम कर रही हो वो भारत इस ग्लोब में नहीं
है !"
-----------------------------------------------------------------------------
//बलात्कार//
"क्या यह बात सच है कि कल तुम्हारी बेटी से बलात्कार किया क्या ?"
"हाँ साहब, कल शाम खेतों से लौटते हुए मेरी बेटी की इज्ज़त लूटी गई !"
"क्या तुम जानते हो कि दोषी कौन है !?"
"मैं ही नही साहब, सारा गाँव जानता है उस पापी को जिसने मेरी बेटी को बर्बाद किया है !"
"मगर इतनी बड़ी बात होने के बावजूद भी तुमने थाने जाकर रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई ?"
"क्योंकि मैं अपनी बेटी का सामूहिक बलात्कार नही चाहता था ! "
This entry was posted on 5:31 AM and is filed under अतिथि-लघुकथा . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
10 comments:
समकालीन भारत के दुख दर्दों को बेहद संवेदना के साथ छूती है..योगराज जी की लघुकथायें..कहीं वह किताबी भारत ग्लोब से खो जाता है तो वही इसका एक निरिह प्राणी स्वतंत्र भारत की पुलिस में अपना अविश्वास इस हुद तक व्यक्त करता है कि इस संस्था के नाम से ही घृणा होती है, संतान में इसी भारत के सामाजिक परिवर्तन पर तीखी टिप्प्णी है, बेगैरत अपने पुरातन विश्वासों पर जहां उंगली उठाती है वहीं सलाम...एक नितांत निजी जिज्ञासा की परिकाष्ठा को छू जाती है...सभी लघु कथायें अपने मकसद में कामयाब हैं, पाठक को भौच्चक ही नही करती उसे कचोटती भी हैं...विश्वगाथा ने, पंकज जी के माध्यम से श्रेष्ठ साहित्य से अवगत कराया है...साधुवाद स्वीकार करें..
Bhai bahut badhiyan hain panchon rachnaye!
योगराज जी को सलाम ... बहुत सटीक और समाज की विडंबना पर प्रहार करती ये लघु कथाये बेहद सशक्त हैं.. वाह .. धन्यवाद पंकज जी .. इन्हें हमसे शेयर किया ..
Chander Mohan Lakhanpal
Fantastic !!! Worth Reading .....
Really Great !!!!!
38 minutes ago · Like
yograj ji ki paanchon laghu katha padhi. mann ko bahut gahre se chhu gai rachna. draupadi ka jua khelna wali katha na sirf ek kataaksh hai samaaj par balki aurat ka apne pati ke prati kartavya aur nishthaa bhi darshaata hai. balaatkaar mein ek pita ka samaaj ke prati virodh nahin balki hamaare samaaj kee asamvedansheelta hai. sabhi kathaa sochne keliye vivash karti. lekhak ko bahut badhai aur shubhkaamnaayen.
भाई शमशाद अंसारी जी, गली कूचा जी, चन्द्रमोहन लखनपाल जी एवं जेनी शबनम जी - लघु कथाएं पसंद करने के लिए दिल से आपका शुकरगुज़ार हूँ !
yograaj ji ki ye behad rochak sundar laghukathaayen ... charchamanch par hai aaj... http://charchamanch.blogspot.com
भाई योगराज प्रभाकर जी की लेखनी का जवाब नहीं| आप एक अच्छे समालोचक भी हैं| लघु कथाओं के क्षेत्र में तो आप अपने यौवन काल से ही कमाल कर रहे हैं| बहुत बहुत बधाई भाई योगराज जी को|
सभी लघुकथा सोचने पर मजबूर करने वाली।
संतान और बलात्कार - दोनों बहुत प्रभावशाली बन पड़ी हैं।वो भारत और बेग़ैरत सामान्य हैं।सलाम एक अच्छा कटाक्ष है।
Post a Comment