गतांक से आगे.. (छठी किश्त)

मैं जानता हूँ, हम मिले थे तब कुछ भी बोल नहीं पाए थे | मगर मुझे उसका दुःख नहीं हैं | तुम्हारे और मेरे बीच ऐसा भेद ही कहाँ? सब लोग ऐसा कहते थे, याद हैं तुम्हें? तुम्हारे चहेरे पर मुँहासे को देखकर कोइ कहता भी... कितना सुन्दर चहेरा है, सिर्फ ये न होता तो....?

मैं उनके कहने का अर्थ समझता | अरे छोडो यार ! वो सभी दोस्तों के मन कितने छिछोरेपन से भरे हुए थे ! उनके लिए तुम्हारा बाहरी सौंदर्य ही महत्त्व का था | मैं उनसे आगे था | हाँ, तुम्हारे लिए मेरी कल्पना, दूसरी लड़कियों के लिए कभी नहीं हुई | इसका अर्थ यह भी नहीं कि तुमसे ज्यादा सुंदर कोइ नहीं | मगर लोग जिस सुंदरता को देखते हैं, मैं ऐसे नहीं देखता तुम्हें ! यूं भी मैं दूसरों से अलग हूँ, यह अहसास खुद मुझे भी हैं | फिर भी समाधान मेरे लिए संभव नहीं हैं | सच कहूँ? मुझे तो तुमसे अच्छा अगर कोइ दिखता हैं तो वह हैं एक्वेरियम में तैरती मछलियाँ ही ! मुझे ये मछलियाँ इसलिए अच्छी लगती हैं कि उसे कुछ भी छूता ही नहीं, पानी के बीच में रहने के बावजूद भी वह कोरी की कोरी ही रहती हैं | हम दोनों भी साथ रहकर कोरे ही हैं न? लोग इस घटना को विडम्बना से देखते हैं और मैं सिर्फ प्यार से ही |

मुझे समझ नहीं आता कि हमारे बीच ऐसा कौन सा सेतू हैं, जो अंदर से हमें निरंतर हचमचाता हैं ! हमारे संबंध क्या हैं, यह भी मैं नहीं जानता | फिर संबंध का नाम भी क्या दें ? शायद वह संभव भी नहीं | भविष्य में हमारे संबंध को नाम देने का विचार आ भी जाए तो तुम क्या दोगी? मुझे तुम याद आती हो और मैं आँखें बंद करता हूँ और महासागर में तुम्हारा चहेरा प्रतिबिंबित होता है | मुझे लगता हैं कि हमारे बीच यह मछलियाँ जो सेतू बनाती हैं वह संबंधों की परिभाषा से भी अलग हैं | इस संबंध की गरिमा तक पहुँचाने में हमारे कहे जाने वाले दोस्तों की वामनता ही सिद्ध होती हैं | हालांकि कौन क्या कहेता हैं यह मैं नहीं जानता | वो लोग तुम्हारे चहेरे के मुहाँसे को देखते हैं, काले दाग़ को देखते हैं और मैं.....? मेरे मन उस बात का कोइ स्थान नहीं |

हाँ, मुझे जब भी तुम्हारी याद आती हैं, तुझे मिलने का प्रबल आवेग उछलने लगता हैं तब मैं तुम्हें देखने को दौड़ पड़ता | उस वक्त तुम्हारी आँखों में रही नमीं अपनेआप उभर आती थी और मुझे ओसबूंद की तरह भिगोती थी ! कुछ पलों के मौन के बाद मैं तुम्हें पूछता; "क्यूं रो रही हो?"

फिर तुम्हारा स्मित हमें मुहाँसे के दाग़ को भुला देता, मेरी थकान को भी भुलाता और ताक़त के साथ बरसता | फिर तो तुम्हारी आँखों में समंदर की लहरें उठती | मैं इसी पल का साक्षात्कार करने के लिए ही बार-बार पूछता | उस वक्त तुम्हारे शरीर में उठते आतंरिक आंदोलनों को समझ सकता था, जो दूसरों के लिए मुमकिन नहीं था | शायद वही कारण था की वो लोग तुम्हारे मुहाँसे और काले दाग़ की आलोचना करते थे |

चँद्रमा के चहरे पर रहे दाग़ को किसने नहीं देखा? मागत अवनी पर फैलती चांदनी को लोग कितने प्यार से झेलते हैं ! हाँ, चँद्रमा का भी एक दिन आता हैं, जब वह भी दुल्हेराजा की तरह बनठन के आता हैं | वो दिन है शरद पूर्णिमा का ! लोगों को उस दिन काला दाग़ याद नहीं आता | उस दिन तो चंद्रमा के तेज-रूप पर चांदनी आफ़रीन होते हैं |

मैं तुम्हारे चहरे की तुलना चाँदनी से करूँ या नहीं, उस बारे में तुम ज्यादा न सोचो | सच तो यह हैं कि महासागर में चाँदनी का बिम्ब जब प्रतिबिंबित होता हैं, ऐसी ही तुम्हारी आँखों को पाने के लिए कई लोग मर मिटने पर तैयार होते हैं | तुम्हें यह सत्य कब समझ में आएगा ? मुझे भी यही बात काफी लम्बे अरसे के बाद समझ में आई थी | जब तुम्हारी आँखों में मैंने गरज़ता महासागर देखा था | मेरी दृष्टि ने, मेरी इन्द्रियों को सतेज किया था तब कान में ऐसा नाद गूंजने लगा था और न जाने क्यूं मेरे बत्तीस कोठे में दीप झिलमिलाने लगे थे, तुम्हारी कसम ! यह बात अगर मैं किसी और को कहने जाऊं तो लोग मुझे पागल ही समझेंगे | एक बात कहूं? मुझे इंसानों पर ज्यादा भरोसा नहीं हैं, इसीलिए तुम्हारे बारे में मैंने उसे कभी भी कुछ नहीं कहा |

हाँ, तुम्हारी बात करने का उत्साह जब उतावला होने लगे तो मैं दौड़ पड़ता हूँ उस एक्वेरियम के पास ! जिसके रंगों में, मुझे तुम्हारी मेघधनुषी प्रतिभा और पारदर्शिता का दर्शन होता हैं | इतना कुछ पाने के बाद भी मुझे निरंतर किसी अलौकिक तत्त्व का अहसास होता रहता हैं |



तुम कौन हो? यह प्रश्न बारबार मेरे सामने आता हैं | भले ही आए ! मैं जानता हूँ कि तुम कौन हो? इसीलिए तो कभी मैंने तुम्हें यह प्रश्न पूछा ही नहीं | कुछ प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए हमारा पागलपन होता हैं | मुझे ऐसा पागल नहीं बनना | मुझे जब भी इस प्रश्न का सामना करना पड़ता हैं तब मैं तुम्हारी स्मृति में खो जाने का प्रयास करता रहता हूँ | मेरी बंद आँखों के सामने तुम्हारा मुहाँसे वाला चेहरा उभर आता हैं | और फिर मैं धीरे-धीरे तुम्हारी बंद आँखों की पलकों को प्यार से उठाने का प्रयास करूँ, न करूँ और तुम्हारी ही आँखों को मेरे आने की भनक की ख़बर तुम्हारे कानों से मिल जाती हैं | फिर मेरे लिए पूरा महासागर ही छलका देने की श्रद्धा भी पूर्ण हो जाती हैं | मेरे सभी प्रश्न उस गरज़ते महासागर के नाद में अपनेआप घुलमिल जाते हैं | और उसमें से कोइ सुरीला सुर एक दिन बहाने लगेगा | ऐसी अनुभूति की पराकाष्ठा ही मेरे और तुम्हारे अस्तित्त्व को, हमारे स्वप्न को, कुछ पलों के लिए भी झंकृत कर देगी |

(क्रमशः...)