गतांक से आगे.. (तृतीय किश्त)

मेरी तरह वह मछली भी किसी को कुछ भी नहीं कह पा रही थी | वह मन ही मन दु:खी हो रही थी | मगर मैं उन्हें सिखाऊंगा कि हम भेले ही अकेले हों, फिर भी उसी में से मार्ग ढूँढना हैं | हमारे अकेलेपन को ही चंचलता में बदल दें तो कैसा? अपने आप से ही संवाद करता इंसान कभी दु:खी नहीं होता | वह दूसरों के सहारे विवशता से भरा जीवन पसंद नहीं करता | मैं उस छोटी सी मछली को कहूंगा, सब लोग भले ही तुझे छोड़कर चले जाएं | तुम चिंता मत करो | तुम किसी ध्येय के लिए हिम्मत से आगे बढ़ती रहो | तुम्हारी तेजस्विता ही सबको तुम्हारी ओर खींच लाएंगी | उस वक्त तुम्हारा स्वमान अपने आप सम्मान में बदल जाएगा | बस, थोडा सा धीरज रखकर कार्य करती जाओ | फिर उसे कहूंगा कि देखो मुझे ! मैं भी कितनी दृढ़ता से जी रहा हूँ | मेरे साथ भी कोइ नहीं हैं | मेरा प्यार भी तो नहीं ! सब दिखावा होता हैं, दिखावा... |

तुम भी प्यार के लिए तरस रही हो, इतना तो मैं समझ सकता हूँ | तेरे और मेरे प्यार में समानता तो हैं मगर हमारी संवेदना में बहुत बड़ा अंतर हैं | मेरी पीड़ा का कोइ अंत नहीं हैं | मानों वह किसी झरने की तरह निरंतर बहता ही रहता हैं | मुझे जो कुछ भी कहना हैं उसके लिए शब्दों को ढूँढने की क्या जरूरत ? वह तो मेरे दिल के बाग़ में शोभा बनाकर मौन हो गए हैं..... मेरी पीड़ा की टहनी तो हमेशा हरियाली ही रही हैं, तो भला उस पर खिलने वाले फूल तो तरोताज़ा ही होंगे न..? मैंने तो तुम्हारा नया नाम भी रख दिया है | तुम्हें भी आश्चर्य होगा | कह दूं क्या? किस मछली ! कैसा लगा तुम्हारा यह नया नाम? तुम्हें जो मैं नहीं कह पाता, वह सबकुछ मैं खुद के साथ संवाद करते हुए बोल लेता हूँ | हवा में फैले मेरे संवेदनात्मक सुरों को शायद तुम सुन पाओ तो... !

मैं कौन हूँ और मेरा व्यक्तित्त्व ?

ऊपर से धधकता ज्वालामुखी

और भीतर में?

अंत तक गहराई में पहुँच जाओगे तुम

तब हाथ लगेगा एक लहराता, शांत,

बरगद की शाखा-प्रशाखाओं की तरह फैला हुआ समंदर !

इंसान कहाँ तक पहुँच पाए, कहाँ स्पर्श करे,

आधारित हैं उनकी कुशलता और वृत्ति पर

ऐसी, अनेकानेक वृत्तियाँ

सिवार की बेलीयों की तरह लिपट जाती है मुझे

मैं तो समंदर में भी निर्बंध होकर

ऐसे तैरना चाहता था कि -

समंदर में ही तैरते जलरंगों में

मेरे लिए मीठी-मीठी ईर्ष्या होने लगे

सिर्फ निछावर होने के लिल्ये मानो होड़ !

लगता हैं मैं कुछ ऐसा करूं,

लोग देखें और बस, हर्षित हो जाएँ.......

मगर-

"कुछ" करने की ललक जन्म ले उससे पहले

न जाने कितने उत्सुक बैठे हैं, उसका शिकार करने को

हाँ, नवजात बेटी जैसी "उत्तम वृत्ति" को दबे पाँव,

गला घोंट दिया जाय,

- और फिर

कहा जाए कि हमारे हाथ में क्या हैं?

सबकुछ ईश्वर की लीला....

फिर वही पंजा कुंकुमवर्ण होकर भले ही नीतरते हो !

ऐसी दो-तरफी वृत्तियों की जाल में से बारबार छूटने का

प्रयास करता हूँ, हमेशा विफल रहता हूँ

कृशकाय हो जाता हूँ....

गहरी निराशा में...!

फिर भी "कुछ" करने की ललक

इस जीर्ण शरीर में जगाती हैं चेतना

फिर, पूरे जोश के साथ खडा हो जाता हूँ

लोग देखतें, खुश होते, तालीयां बजातें

प्रोत्साहित करते मुझे

मेरी सकारात्मक वृत्तियाँ रोएं-रोएं में उतरकर

धकेलती है मुझे भीतर से

अब मैं तैयार हूँ, मेरे आसपास के लोग

परिवर्तित हो गए हैं भीड़ में....

उन्हें देखकर फूला नहीं समाता, मुझे जल्दी ही

"कुछ करना" हैं...

जिसका मुझे और आपको हैं बेसब्री से इंतजार !

अचानक वही भीड़ -

भीड़ की वृत्तियाँ भीस लेती हैं मुझे

और फिर उसीके बीच- दबता, गिरता, ठोकरें खाता हूँ...

आँख खुलती हैं-

समंदर की गहराई में एक विशाल चट्टान पर

पडा हूँ मैं, मानों भगवान विष्णु !

आसपास शीतलता, परम शान्ति,

मन मेरा स्वस्थ हैं...

मैं धीरे धीरे आँखे खोलता हूँ, निर्मल जल में

तैरती मेरी आँखें मछली बन जाती हैं

आसपास जलरंगों की अदभुत -

मनोहर मायावी

नगरी है और उसमें बिलकुल

अकेला सो रहा हूँ मैं... मानो समूचा कोरा...!

फिर चारों ओर देखता हूँ, वह भीड़ बने इंसान नहीं दिखते कहीं भी

नहीं दिखती उनकी दुष्ट वृत्तियाँ और वह नीली आँखें !

मेरी नज़र, शरीर को घेर लेती हैं

हरी, कोमल वनस्पति को जीमती छोटी-बड़ी रंगबिरंगी

मछलियों को देखता हूँ....

मेरे हाथ-पैर, कान-नाक, मेरा शरीर धीरे-धीरे

सिकुड़ता हैं, बस सिकुड़ता रहता हैं निरंतर....

तब एक मछली मेरे पास आकर मधुर स्मित कराती हैं

मैं खुद को देखकर शरमाता हूँ

तब दूसरी मछली

पहलीवाली को धक्का लगाकर मुझे किस करती हैं...

मैं अब "मैं" नहीं और फिर भी जो "मैं" था वो ही

मूलरूप में "मैं" फिर से ज़िंदा हो जाता हूँ...

आज मैं समझ पाता हूँ,

मैं तो इंसान नहीं, मछली की ज़ात !!!


(क्रमशः....)