कोहरे की चादर ओढ़े रात चुपके से खड़ी थी
चाँद
भी थोडा था फ़ीका
, जाड़े की रात कड़ी थी
ठिठुर
गया था वक्त, निस्तब्ध पेड़ समान सा

बिखरते
रहे पल धीरे धीरे, मंद सप्तक गान सा
थर्राई
सी रात जाड़े की, झोंपड़ी में पड़ी थी

कोहरे
की चादर ओढ़े रात चुपके से
खड़ी थी