दरिया किनारे से गुजराती
बरात को देखकर -
धड़कते ढ़ोल की आवाज़ें......
सुनाई दी अभी तो -
काँटे में फँसी मछली ने
सुरु किया तड़पना
और
मछुए का हाथ छूटा
आख़िर
काँटे में से न छूट सकी मछली
और
मछली में से न छूट पाया
वह मछुआ... !!
और
पसार हो गई पूरी
बरात....!!

क इंसान के रूप में कईं अच्छे-बुरे अनुभव अपनी इच्छा-अनिच्छा से आत्मसात होते हैं। उन्हीं अनुभवों के विचार सर्जक के मन में निरंतर बिलोते रहते हैं और उसमें से जो पिंड बनाता है, वही साहित्य के किसी स्वरूप में कागज़ पर उभर आता है। यहाँ शादी की बारात, दरिया और ढोल प्रतीक आनंद का अनुभव करवाते हैं ।

किसी ने कहा है की दरिया के इस किनारे पे लहराते झाग, दूसरा कुछ नहीं मगर सामने वाले किनारे पे खड़े खलासी के अश्रु हैं । हमारी बारात तो सुबह होते ही निकल पड़ती है । रोज़ ख़ुशी के ढोल बजते हैं । इंसान कौन से नशे में जीता है ? प्रत्येक इंसान को दूसरा इंसान सुखी लगता है। इंसान जन्म ले, समझदार बने, शादी करे, बच्चे पैदा करे, उनकी भी शादियाँ करवाए और ऐसा जिए कि जीवन के अंतिम दिनों में सब लोग उसके बारे में अच्छे भाव प्रकट करें । इन सब के बीच में इंसान ने सचमुच क्या जी लिया ? कैसा जीवन बिताया उसने? उसके लिए सच्चे भाव कौन प्रकट करें? ऐसे प्रश्नों की हारमाला हमारी नज़रों के सामने आभास खड़ा करती है । हमारा जीवन यानी धड़कता ढ़ोल । हम हर पल उसे बजाकर मस्ती में जीने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । इन प्रयत्नों के बीच के अभाव, अरुचि या असंतोष के भाव हमें ही धीरे-धीरे परेशान करते रहते हैं । परिणाम स्वरूप हम जैसा जीना चाहते है, वैसा ही जी नहीं पाते ।

प्रत्येक इंसान प्रतिपल बदलता रहता है। यह प्रक्रिया जितनी सकारात्मक है, उतनी ही नकारात्मक भी। एक पल में मिलता इंसान दूसरे पल में ज्यादा अच्छा अनुभव करवाए, वह सकारात्मक। मगर वही इंसान दूसरे पल में हमारी मान्यता से बाहर निकल जाए अथवा हमारी दृष्टि में बुरा अनुभव करवाए, तब उसे नकारात्मक कह सकते हैं । यह बात यहीं से ख़त्म नहीं होती ।

जो इंसान अच्छा लगता है, वह दूसरों के लिए बुरा हो सकता है न ? ऐसा ही उस बुरे अनुभव के बारे में भी सोचना चाहिए। वह इंसान सोचता हो कि मुझे आपकी क्या ज़रूरत कि जी-हूज़ूरी करूँ? संभव है कि उस इंसान ने हमें नज़रअंदाज़ किया हिया हो । उसका अर्थ यह भी तो नहीं कि वह इंसान सभी के लिए सचमुच बुरा ही होगा । मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि प्रत्येक इंसान में एक शैतान होता है और संत भी और इंसान हमेशा परिस्थिति का भी गुलाम होता है । ऐसी परिस्थिति में संयम बड़ा महत्व का कार्य करता है । संयम की कोई व्याख्या नहीं होती और वह किसी की भी सलाह से प्राप्त भी नहीं होता । संयम के लिए निजी अनुभवों की ठोकरें खाना ही बेहतर । कोई इंसान हमें छलने अथवा हमारी मर्यादाओं को तोड़ने के लिए ज़बर्दस्त गुस्सा दिलाए ऐसा भी हो, तब संयम सहजता से छटक जाता है । उस पल मर्यादाएँ अपने बंधन में से भड़क उठें तो वह इंसान, नकारात्मक व्यवहार की ओर से सहजता से लुढ़क जाए । क्यूंकि वह दुःख उसका ख़ुद का ही है, जो किसी दूसरे के अनुभव में नहीं । वे सब लोग तो सलाह देने के लिए बेचैन होंगे । सलाह देना आसान है, मगर हमारे अस्तित्व को वहाँ रखकर सोचना ज्यादा कठिन है । अगर संयम को जीत जाये और धैर्यता से व्यवहार कर पाए तो ऐसे इंसान को संत के सामान आदर देना चाहिए ।

हम तो उस मछावारे के जैसे हैं । उसे अपने पेट को भरने या गुजरान के लिए मछलियों का शिकार करना पड़ता है । वैसे ही हम भी मच्छीमारी के बदले मौक़ा मिले तो किसी का भी शिकार कर लेते हैं । गुजराती में एक पुराणी कहावत है - "पेट करावे वेठ" । पेट कभी भरता है ? ऐसा हम सुनते आए हैं । मगर अब तो हम पेट से भी बड़ी जेब रखने लगे हैं । पेट भर जाता है, जेब कभी नहीं । कुदरत के नियम के विरुद्ध कैसे जिये, यह आज इंसान ने सीख लिया है । कुदरती भोजन में जो संतोष मिलता था वह चला गया है । यानी भौतिकता का नशा जेब को पूर्णरूप से भरने ही नहीं देता । नियति को बदलने के लिए इंसान निरंतर मथता है मगर सही दिशा न मिलाने के कारण भटक जाता है। मेरी जेब में नहीं है, इसका दुःख कहाँ, मगर तुम्हारी जेब में देखा गया हूँ, उसी का दुःख अपार है ।

यह बात सिर्फ़ धन के लिए ही लागू नहीं होती । कहीं बुद्धिधन के कारण भी ईर्ष्या होती है। हमारी स्थितप्रज्ञता स्वार्थी है, उसमें नीचता है। अगर हम ऐसी स्थितप्रज्ञता के बदले स्थिरता को पा गये तो भी प्रश्न नहीं रहेगा। विचार हमेशा स्थिर रहना चाहता है, चाहे अच्छा हो या बुरा। अगर हमारा इरादा मज़बूत है तो वह विचार टिक जाएगा । विकार को परिणाम नहीं होता, विचार को परिणाम होता है । परिणाम का एक अर्थ फल भी है । किसी भी क्षेत्र में इंसान मेहनत करे तो उसमें उसका आशय सिर्फ़ और सिर्फ़ उत्तम फल प्राप्त करने का ही होता है । विचार हमेशा मेहनत करने की प्रेरणा देता है । विकार मेहनत को घटाकर अन्य प्रवृत्तियों की ओर ले जाता है । कोई भी इंसान बिना कारण अन्य मार्ग पर मुड़ जाए, तब नुकसान ही होगा । सही कारण से मुदा हो तो कोई तो परिणाम अवश्य मिलेगा ।

नकारात्मक काँटे में फँसी मछली जैसी है । एक बार फँस जाने के बाद मछुआ हो या आम आदमी, वह उसमें से छटक नहीं पाता । परिणामस्वरूप जीवन की बारात गुज़र जाती है और इंसान वहीं का वहीं रह जाता है । यह अटक जाने की प्रक्रिया इंसान के अंदर सडन पैदा करती है । हमने कभी भी अपने आसपास में परवरिश पाती नई पीढी की जानकारी या उसके अंदर छिपी किसी अलौकिक शक्ति को पहचानने की कोशिश की है? उसे प्रोत्साहन देकर सही मौक़ा उनके लिए उपलब्ध करवाया है? ये सभी प्रश्न हमें बबूल के काँटे की तरह भोंक दें और पीड़ा दें तब नई पीढी को अपने हक़ के लिए अस्तित्त्व को साबित करने की लड़ाई लड़नी नहीं पड़ेगी । ऐसी पीड़ा को बयानों के द्वारा किसी अन्यके पास बाँटेंगे तो हमारा ही अवमूल्यन होगा ।

वास्तविकता तो यह है की उनके व्यक्तित्त्व को उभरने का पूरा मौक़ा हमने नहीं दिया है । ऐसा जब भी हो तब जाने-अनजाने में उनके कार्य में हम अवरोध के रूप में खड़े न हो जाएँ, इतना तो अवश्य सजग बनें । इंसान को अपना भाग्य ख़ुद बनाना है- यह विधान हम समझने लगे तब से सुनते आए हैं । इसमें छिपे दो शब्दों को निकाल दो : एक भाग्य और दूसरा- परिस्थिति। इन दो शब्दों के बगैर कैसी भी कुशलता वाला इंसान भी नियति को बदलकर उत्तम जीवन नहीं बिता पाएगा । ज्योतिष की दृष्टी से देखें तो भी किसी एक गृह की कृपादृष्टि से काम नहीं चल पाएगा । दूसरे भी सहायक ग्रहों की मदद भी ज़रूरी बनेगी। उसके जीवन की प्रत्येक मंजिल पर परिवार, मित्र-स्वजन, पदाधिकारी आदि के किसी-न-किसी स्वरूप में सहयोग की आवश्यकता होगी । उनमें से एक भी कड़ी टूट गयी तो हमारा जीवनचक्र चलेगा तो भी लंगडाता हुआ। हमारी इच्छाओं की मछलियाँ परिस्थिति के काँटे में फँस जाएं, उसके बाद उसमें से नहीं छूट पातीं और नहीं छूट पाता वह इंसान ।