गतांक से आगे...



मछलीघर में तैरती रंगबिरंगी मछलियों के बीच मैं तुम्हारे अस्तित्त्व को पाने मथता | क्यूं? उस क्यूं का जवाब मेरे पास भी नहीं हैं, मैं भी खोज रहा हूँ उसके प्रत्युत्तर को ! हाँ, शायद तुम्हें उसका कोइ कारण या अर्थ मिल भी जाए तो मुझे कहोगी? अरे हाँ ! तुम कैसे कहोगी? हम दोनों तो एक-दूसरे को पाने से पहले ही ... तुम्हें बारबार देखने के बाद मेरे दिल की भावनाओं को ज़हन से कुछ शब्द मिले हैं | उसे मैं तुम्हें समर्पित करता हूँ .... मगर यह भी जानता हूँ कि वह शब्द तुम तक पहुंचेंगे नहीं और अगर पहुँच भी गए तो भी...? फिर भी मेरे इन शब्दों को तुम्हारे लिए, तुम्हारे सामने रखता हूँ...

मैं उसे देखूं

और

घुटन सी होने लगती

इस ओर जीवन, धबकार, गति, संघर्ष

और

जीने की चाह लिपट जाए

हरी-चिप चिपाती सिवार की तरह...!

सामने ही समंदर, असीम..

नया जीवन, फुर्तीलापन और फिर..?

सिर्फ छटपटाना...

आपका घर होगा, जाना-पहचाना नाम होगा और

मुहल्ला भी....

मेरा भी घर, उसका भी नाम,

एक्वेरियम...!

तुम्हें शायद आश्चर्य होगा | हमारे सम्बन्ध का कोइ नाम ही नहीं हैं और मैं कल्पना में मस्त होने लगा हूँ | मानों, मैं सचमुच घोड़े पर सवार होकर दूल्हा बनकर आ गया हूँ और तुम तो पहले से ही शर्मीली हो न...? मेरी बात सुनाने को कोई राजी न था तो मेरे परिवर्तन को कौन देखेगा भला ! मैं तो मछलियों के बीच तुम्हें ढूँढता रहता हूँ | मछलियों के रंगों के कारण ही मैं जीवन के रंगों को समझाने लगा, सजग होने लगा | मेरे पास क्या है? मेरे सपने ही मेरी अमानत हैं, मेरी पूंजी हैं, मेरा सबकुछ... | तुम्हारे कारण मेरा नाम रटने वाली मछलियाँ अब तो दिल जलने लगी हैं | निहारो मेरे इस स्वप्न के शब्द देह को...

केसरिया साफा बांधकर

ढलती हुई शाम के

धूमिल अजवास में

डूबता हुआ सूर्य.....

स्फटिक सी चमकीली रेत और नदी के

फैले हुए बहाव में

ब्याह रचाकर घर लौटने के बाद

मेघधनु की शोभा स्वागत करती हैं....

उसे देखकर मीठी मीठी ईर्ष्या करती हुई

तैरती नटखट मछलियाँ...!!

मेरे भीतर रहे सूर्य का उगना प्रत्येक सुबह को फुर्तीली ताज़गी देता हैं | उसका केसरिया साफा मेरे सपनों के लिए प्रेरणादायी प्रतीक बनकर उभरता हैं | स्फटिक से स्वच्छ संबंधो में हम साथ मिलकर प्रणय के फ़ाग खेलते हैं तब ये सारी नटखट मछलियाँ क्यूं न जले?

कल मैंने एक छोटी सी मछली को समंदर के भीतर चट्टानों के बीच छिपकर बैठी हुई देखी थी | मानों वो किसी के साथ पकड़ दौड़ का खेल खेलती हो | मुझे आश्चर्य भी हुआ | फिर तो कईं छोटी-छोटी मछलियाँ यहाँ-वहां भागती हुई दिखाई दी | मैं समझ नहीं पाया कि यह खेल रही हैं या किसी भय से... | कभी लहरों के ऊपर तो कभी गहरे पानी तक तैरती और छुप जाती | मगर धीरे-धीरे इस एक ही मछली को छुपाकर बैठी हुई देखी मैंने | संभव था कि इसके साथ खेलने वाली मछलियाँ एकजूट होकर इसे परेशान करती हो या किसी बात पर अनबन... क्या हुआ होगा, क्या पता? अब मैं उसके विचारों में खोने लगा | इस छोटी सी मछली को उसका बचपन कैसे लौटाऊँ? जो अचानक ही धीर-गंभीर हो गई थी | मुझे तो यह भी जानना होगा कि उसे हुआ क्या हैं ? सच कहूं? तुम्हे कोइ भी बात कहने से मैं डरता हूँ | तुम इस मछली की बात छोडो, कोई भी ऐसी बात को सुनाती हो तो ग़मगीन हो जाती हो | ठीक है, अब उसके बारे में ही पूरी बात सुन लो |

पापा को मिलने आई

बेटी,

वेकेशन में बुनती हैं प्रश्नों का जाल....

पापा,

उलझते रहते हैं उन में

यत्न करते हैं छूटने का, और

फंसते रहते हैं लगातार...

पापा, बेचैन- यहाँ

मम्मी- वहाँ

बेटी- यहाँ वहाँ

मम्मी पढ़ाती, सख्त स्वभाव से

कहानी सुनाएं पापा,

फिल्म, फ़नवर्ल्ड और आइसक्रीम का लुत्फ़

और हिल स्टेशन का आनंद

सिर्फ अट्ठाइस दिनों का फ़रमान

बेटी प्रश्न करती, मौन पापा

वहाँ तो गुस्सा मम्मी का

एक्वेरियम में तैरती हुई

वह पहुँच जाती हैं एक कोने में

अकेली, तन्हा,

सजल...!!

(क्रमशः..)