क्यों उसकी सिसकियों की आहट
कान के दरवाजे से ही लौट जाती है।
कहना चाहती है वो जो कह सकी
सुनाए भी तो सुनी नहीं जाती है।
बन गई है वह एक भूली सी दास्तां
जो रह.रह कर उभर आती है।
पास ही उसका बसेरा है सबके
फिर भी नजर क्यों नहीं आती है।
बदल रही है करवटें किस्मत
रोशनी दूर होती जाती है।
आस है इक निगाहे हसरत की
हौसला जो उम्मीदों को देती है।
शिकायतों का दौर चलते ही जाता
बिना दाम खुलेआम बिक जाती है।
दबा के सिसकियों को रोज खाट के नीचे
सरेआम हाथ उनके लुटती है।
कैद रह जाती अगर आह निकलती दिल से
वहीं पे जिस्म लिए साँस आके रूकती है।