चंद्रकांत बख्शी
चंद्रकांत बख्शी | नाम ही काफी है | गुजराती साहित्य में परम्परा को तोड़ने वाला मिजाज | कभी किसी विशेषांक में लिखने की न तमन्ना और न किसी अवार्ड या सम्मान की मोहताजी | मुम्बई के शेरीफ रह चुके चंद्रकांत बख्शी सबसे लोकप्रिय लेखक है | साहित्यिक संस्थाओं के दिग्गज उन्हें साहित्यकार कहने-मानने से कतराते थे | हाँ, बख्शी हमारे बीच नहीं है | मगर आज भी उनकी पुराने आलेखों को छापकर गुजराती अखबार गर्व महसूस करते हैं और उन्हें अखबार भी तो चलाने हैं न? बख्शी कलम और गन चलना जानते थे, या कहो की उनका मिज़ाज था | उनकी एक कविता आपके लिएँ... सरकार
सरकार के करोड़ों मुंह होते हैं
सिर्फ एक आत्मा नहीं होती
सरकार आवाज़ की मालिक हैं
और मालिक की आवाज़ हैं
सरकार विचार कर सकती हैं
सरकार लेखक से लिखवा सकती हैं
जादूगर को रूला सकती हैं
चित्रकार से चित्र बनवा सकती हैं
गायक से गवा सकती हैं
एक हाथ से ताली बजवा सकती हैं
रविवार को सोमवार बना सकती है
नयी पीढी को पुराणी बना सकती हैं
पैसा छाप सकती है, घास उगा सकती हैं
बीजली बेच सकती है, इतिहास गाड़ सकती हैं
अर्थ को तंत्र और तंत्र को अर्थ दे सकती हैं
सरकारों की भागीदारी में यह पृथ्वी बदलती हैं
समय बदलता है, मंत्र बदलते हैं
पर एक दिन
गरीब की आँख बदलती है और
सरकार बदल जाती हैं.....
जया केतकी और रेणु सिंह
बिना दरवाजे, खिडकियों की झोपडी में,
बाहों में बाहें डाले,
मिला करती थी, तेरी-मेरी संवेदनाएं।
सिसक, सिमटकर कह जाती,
एक-दूसरे का दर्द।
खिलखिलाकर बांटती थी,
खुशी के लम्हे, बीते वाकये।
अब नहीं मिल पाती संवेदनाएं,
पहले जैसी निकटता अब कहाँ,
छत के नीचे की दीवारों पर
जड गए हैं दरवाजे।
बंद रहती है खिडकी हमेशा,
खुलती भी है तो मोटा पर्दा
बीच में आ जाता है, दूरियाँ बढाने।
कैसे मिलें, कैसे कहें?
अब अपना सुख-दुख कैसे बांटें?
घुट रही है जिन्दगी,
अकेली, निराधार, असहाय!
काश! यह पर्दा उठे,
दिखजाए संवेदना का चेहरा फिर,
दूर करे कोई उसकी उदासी,
पूछ जाए आकर, सीने से लगाकर,
क्या तुम्हें कुछ कहना है? मुझसे . . . . . .
झँझावतोँ मेँ मन उलझा फटी पतंग सा,
कुछ अनिश्चितताओँ मेँ मगन,
ढेर सी चिँताओँ मेँ मगन
सब कुछ तो करेँ क्या न करेँ,
कुछ असमँजस सा
टिकेँ कि रहेँ कदम जमीन पर भी और
थाम लूँ ये सारा गगन, कुछ इच्छायेँ
जगीँ सी ख्वाब भी जाग गये से,
कुछ तो पहले ही की दमित इच्छायेँ,
कुछ कुचले हुये सपने भी पर सोचा ये भी
कि झटक दूँ समस्त झँझावतोँ को,
कि जगा लूँ समस्त कुचले हुये सपने,
दमित इच्छाये भी , समेल लूँ साहस जीने का ,
कुछ सँघर्ष करने का, कि इसके बिना तो
हो जाये जीना मुश्किल सा....
अतिथि
मीरांबाई
प्रिय दोस्तों,
आजसे आपको मूल गुजराती साहित्यकारों की रचनाओं का हिन्दी अनुवाद पढ़ने को मिलेगा... जिसे आप "गुर्जरी" के अंतर्गत पढ़ सकते हैं |
मेरी कोशिश है कि "विश्वगाथा" सही मायने में सभी भाषाओं का मंच बनाकर रहे | जिसमे गद्य और पद्य की सभी विधाएं भी शामिल हों |
गुजरात के द्वारिका में भगवान श्री कृष्ण राजा थे और उनके प्यार में बावरी मीरां ने मेवाड़ छोड़कर द्वारिका में विराजमान राजराजेश्वर श्रीकृष्ण की मूर्ति में खुद को विलिन किया | गुजराती भाषामें आद्यकवि श्री नरसिंह मेहता से भी पहले मीरांबाई है | "गुर्जरी" के प्रथम चरण में मीरां को रखने कारण यह भी है कि वह राजस्थान से आई थी | श्री कृष्ण भी मथुरा से गुजरात में आएं थे | उनकी परम्परा को मैं भाषा-साहित्य के द्वारा प्रांत को भी जोड़ना चाहता हूँ | मेरा यह नम्र प्रयास आपको पसंद आयेगा, ऐसा मानना गलत नहीं होगा | आप सब के प्यार की आशा में...
उम्मींद है कि मेरा यह निर्णय आपको पसंद आयेगा और "गुर्जरी में आपको गुजराती भाषा के परिवेश और मिट्टी की सुगंध महसूस होगी |
------------------------------------------------------------------------------------------ बसों मेरे नैनं मैं नंदलाल
मोहनी मूरत साँवरी सूरत नैना बने विसाल |
अधर सुधारस मुरली राजति उर बैजंती माल ||
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित नूपुर सबद रसाल |
मीरा प्रभु संतन सुखदाई भगत-बछल गोपाल ||
व्यर्थ नहीं हूँ मै / कलियुग
व्यर्थ नहीं हूँ मैं - कविता किरण
व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।
मैं स्त्री हूँ!
सहती हूँ
तभी तो तुम कर पाते हो गर्व अपने पुरूष होने पर
मैं झुकती हूँ!
तभी तो ऊँचा उठ पाता है
तुम्हारे अंहकार का आकाश।
मैं सिसकती हूँ!
तभी तुम कर पाते हो खुलकर अट्टहास
हूँ व्यवस्थित मैं
इसलिए तुम रहते हो अस्त व्यस्त।
मैं मर्यादित हूँ
इसीलिए तुम लाँघ जाते हो सारी सीमायें।
स्त्री हूँ मैं!
हो सकती हूँ पुरूष
पर नहीं होती
रहती हूँ स्त्री इसलिए
ताकि जीवित रहे तुम्हारा पुरूष
मेरी नम्रता, से ही पलता है तुम्हारा पौरुष
मैं समर्पित हूँ!
इसीलिए हूँ उपेक्षित, तिरस्कृत।
त्यागती हूँ अपना स्वाभिमान
ताकि आहत न हो तुम्हारा अभिमान
जीती हूँ असुरक्षा में
ताकि सुरक्षित रह सके
तुम्हारा दंभ।
सुनो!
व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।
कलयुग - मनोज जोशी
ऐसा कलयुग आया कि...
द्वापर त्रेता के भेद मिट गये ...
द्वापर में द्रौपदी का हुआ चीर हरण...
त्रेता में सीता उठा ले गया रावण...
राम कृष्ण ने तब दुष्टों का संहार किया...
राम और धर्म राज स्थापित किया...
सदियाँ बीत गयी दुर्योधन का वध हुए...
दो युग बीत गये रावण दहन हुए ....
मगर नहीं जलता वह रावण जो छिपा बैठा हर देह में...
हरण हो सीता पहुँच रही मीना बाजार...
द्रौपदी का चीर हरण बन गया व्यापार...
मानवता कर रही हर ओर चीत्कार...
रक्षक सब भक्षक भए हो रही हाहाकार...
राम कहाँ हो तुम सीता है लाचार...
कृष्ण जल्दी सुनो द्रौपदी की पुकार...
दुर्योधन रावण में अब नहीं कोई अंतर ...
फिर ना कहीं ये देह पाए ऐसा फूंको मंतर...
फिर ना कहीं ये देह पाए ऐसा फूंको मंतर...
दो कलमें
निराशा-आशा
1
कब छूटेगा,
किसको पता?
एक पल में झूझना
जीना और
पल पल में मरना !
२
जन्म हुआ
यही बड़ी आशा,
ईच्छा
संभावना और
वास्तविकता...
जाना तो भले ही
किसी भी पल
एक एक पल में
मनभर जानना,
खुश रहना और
जीना
भरसक !!
डॉ. नूतन गैरोला की चार कवितायें
परिचय - डॉ नूतन

पेशे से स्त्रीरोग विशेषज्ञ | खुद का हॉस्पिटल | दूर दराज के गाँवों में जहां कोई सुविधा नहीं पहुँच पाती वहां सेवा | स्वयं के बलबूते पर स्वास्थ कैंप और पहाड़ियों की महिलाओं जरूरतें और दुःख-दर्द को समझना | लिखते समय भी उनकी भावनाओं को ही उजागर करने की कोशिश और कशिश | खेलकूद, पहेलिया सुलझाना, निशानेबाजी, संगीत,नृत्य , चित्रकला,वाक् -विवाद और लेखन का शोक बचपन से रहा है | व्यस्तता के कारण भी जीवन का आनंद ले रही हैं |
....... * सुस्वागतम *.......
पदार्पण मेरा प्रथम ,
शुभ हो मंगल उमंग |
खिल उठे फूल रंग बिरंग ||
ॐ से हो साक्षात्कार ,
सत्य से जुड़ा रहे नाता अपार
लिखने की चेष्टा करती हूँ ,
साथ रहे सरस्वती का वास हो ||
न चाहत है मन में
किसी यश की,
न ही चाहत किसी के संग की
बस तू देता रहे छाया प्रभू ,
अपने कल्याणकारी छत्र की ||
मंगल हो सुमंगल हो ,
सृष्टि का सृजन हो |
ले हाथ में छेनी तू
हर विनाश का विकल्प हो
माया ठगनी के कुरूप भंवर का
सुन्दर शिल्प में विलय हो
मोक्ष का उदय हो ||
प्रभु खुशियों से भरा
आसमां भूमि और जल हो
प्राणी और सांसारिक
हर में जीवन हो जीवंत हो
पदार्पण मेरा प्रथम,
शुभ हो, मंगल हो, उमंग हो ||

माँ का प्यार अवर्णनीय
समर्पण प्यार बलिदान
अंतहीन धेर्यवान
निस्वार्थ और सर्वदा क्षमादान
मोडे मुंह को दुनिया कभी
गोद में माँ की हर समस्या का समाधान
माँ बन जाती तब प्रेरणादायक और भी महान
ले कर अपने आलिंगन में
और कष्टों के आगे ढाल बन
खुद का कवच बना देती है,देती दुखो से निदान ...
माँ देवी का रूप, ईश्वर का है अनूठा वरदान
बाँध न सका जिसको कोई,
रोक ना सका जिसको कोई ,
मैंने बाँधा है और रोका है
उस समय को इक परिधि में |
टिक टिक चलती जाती हूँ मै
दिन हो या हो रात ,
चलती चक्की की तरह
अनवरत घिसती जाती हूँ |
कान ऐंठ कर कहते वो,
उठा देना जगा देना .
अपना अलार्म बजा देना,
दुनिया काम में या आराम में मशगूल,
और मैं पल पल चलती जाती हूँ |
खुद के लिए नहीं उनके लिए हूँ
आवाज लगाती -
बाबू उठ जाओ भोर भयी ,
मालिक उठ जाओ ऑफिस की देर भई
बच्चे उठ जाओ, पढ़ लो परीक्षा आ गयी
उठो मुसाफिर तेरे सफ़र का वक़्त आ गया
देखो ना दिन दोपहरी बीत गयी
और तुम भी कुछ थके अकुलाए
सो जाओ अर्ध रात्री आ गयी ,
मुझे तो अपने कर्मों पे जुते रहना है
रात और ना ही दिन कहना है
सुई की नोक के संग ढलते रहना है |
शिशु नवजात का जन्मसमय बताती
और जीवन को बांधती जन्मकुंडली में
बड़े बड़े ज्योतिषी करेंगे ताल ठोक कर
बड़ी बड़ी भविष्यवाणी
और खुद का भविष्य नहीं मैं समझ कभी पाती ||
पुरानी पड़ जाऊँगी
तो घर के किसी कोने में फैंक दी जाऊँगी ,
या किसी नए इलेक्ट्रोनिक उपकरण के बदले
बदल दी जाऊँगी |
मुझे इस्तेमाल किया बेहिसाब
समय के हिसाब से,
और मैंने वादा निभाया साथ निभाया
हर पल की टिक टिक के साथ
अब आप ही बताये कि
मै एक घडी हूँ ..या मै स्त्री हूँ ?
तेरी याद में दिन इक पल सा ओझल होने को है |
और अब शाम आई नहीं है के सहर होने को है ||
मेरे सब्र का थका परिन्दा टूट के गिर पड़ा है |
दीदार को तरसती आंखे और पलकों के परदे गिरने को है ||
चिरागों से कह दो न जलाये खुद के दिल को इस कदर |
के रोशनी का इस दिल पर अब ना असर कोई होने को है ||
मेरी ये पंक्तिया उन थके माता पिता को समर्पित है जिनके बच्चे बड़े होने पर गाँवों में या कही उनेह छोड़ कर चले जाते है अपनी रोजी रोटी के लिए और इस भागमभाग में कहीं बुढे माता - पिता उनकी आस में उनकी यादो के साथ उनका इन्तजार करते रह जाते है..