विश्वगाथा परिवार की और से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ
“उन्हें पता नहीं हैं की वह क्या कर रहे हैं, हे भगवान उन्हें माफ़ कर दें”
छठी किश्त - मत्स्यकन्या और मैं.. - पंकज त्रिवेदी
मैं जानता हूँ, हम मिले थे तब कुछ भी बोल नहीं पाए थे | मगर मुझे उसका दुःख नहीं हैं | तुम्हारे और मेरे बीच ऐसा भेद ही कहाँ? सब लोग ऐसा कहते थे, याद हैं तुम्हें? तुम्हारे चहेरे पर मुँहासे को देखकर कोइ कहता भी... कितना सुन्दर चहेरा है, सिर्फ ये न होता तो....?
मैं उनके कहने का अर्थ समझता | अरे छोडो यार ! वो सभी दोस्तों के मन कितने छिछोरेपन से भरे हुए थे ! उनके लिए तुम्हारा बाहरी सौंदर्य ही महत्त्व का था | मैं उनसे आगे था | हाँ, तुम्हारे लिए मेरी कल्पना, दूसरी लड़कियों के लिए कभी नहीं हुई | इसका अर्थ यह भी नहीं कि तुमसे ज्यादा सुंदर कोइ नहीं | मगर लोग जिस सुंदरता को देखते हैं, मैं ऐसे नहीं देखता तुम्हें ! यूं भी मैं दूसरों से अलग हूँ, यह अहसास खुद मुझे भी हैं | फिर भी समाधान मेरे लिए संभव नहीं हैं | सच कहूँ? मुझे तो तुमसे अच्छा अगर कोइ दिखता हैं तो वह हैं एक्वेरियम में तैरती मछलियाँ ही ! मुझे ये मछलियाँ इसलिए अच्छी लगती हैं कि उसे कुछ भी छूता ही नहीं, पानी के बीच में रहने के बावजूद भी वह कोरी की कोरी ही रहती हैं | हम दोनों भी साथ रहकर कोरे ही हैं न? लोग इस घटना को विडम्बना से देखते हैं और मैं सिर्फ प्यार से ही |
मुझे समझ नहीं आता कि हमारे बीच ऐसा कौन सा सेतू हैं, जो अंदर से हमें निरंतर हचमचाता हैं ! हमारे संबंध क्या हैं, यह भी मैं नहीं जानता | फिर संबंध का नाम भी क्या दें ? शायद वह संभव भी नहीं | भविष्य में हमारे संबंध को नाम देने का विचार आ भी जाए तो तुम क्या दोगी? मुझे तुम याद आती हो और मैं आँखें बंद करता हूँ और महासागर में तुम्हारा चहेरा प्रतिबिंबित होता है | मुझे लगता हैं कि हमारे बीच यह मछलियाँ जो सेतू बनाती हैं वह संबंधों की परिभाषा से भी अलग हैं | इस संबंध की गरिमा तक पहुँचाने में हमारे कहे जाने वाले दोस्तों की वामनता ही सिद्ध होती हैं | हालांकि कौन क्या कहेता हैं यह मैं नहीं जानता | वो लोग तुम्हारे चहेरे के मुहाँसे को देखते हैं, काले दाग़ को देखते हैं और मैं.....? मेरे मन उस बात का कोइ स्थान नहीं |
हाँ, मुझे जब भी तुम्हारी याद आती हैं, तुझे मिलने का प्रबल आवेग उछलने लगता हैं तब मैं तुम्हें देखने को दौड़ पड़ता | उस वक्त तुम्हारी आँखों में रही नमीं अपनेआप उभर आती थी और मुझे ओसबूंद की तरह भिगोती थी ! कुछ पलों के मौन के बाद मैं तुम्हें पूछता; "क्यूं रो रही हो?"
फिर तुम्हारा स्मित हमें मुहाँसे के दाग़ को भुला देता, मेरी थकान को भी भुलाता और ताक़त के साथ बरसता | फिर तो तुम्हारी आँखों में समंदर की लहरें उठती | मैं इसी पल का साक्षात्कार करने के लिए ही बार-बार पूछता | उस वक्त तुम्हारे शरीर में उठते आतंरिक आंदोलनों को समझ सकता था, जो दूसरों के लिए मुमकिन नहीं था | शायद वही कारण था की वो लोग तुम्हारे मुहाँसे और काले दाग़ की आलोचना करते थे |
चँद्रमा के चहरे पर रहे दाग़ को किसने नहीं देखा? मागत अवनी पर फैलती चांदनी को लोग कितने प्यार से झेलते हैं ! हाँ, चँद्रमा का भी एक दिन आता हैं, जब वह भी दुल्हेराजा की तरह बनठन के आता हैं | वो दिन है शरद पूर्णिमा का ! लोगों को उस दिन काला दाग़ याद नहीं आता | उस दिन तो चंद्रमा के तेज-रूप पर चांदनी आफ़रीन होते हैं |
मैं तुम्हारे चहरे की तुलना चाँदनी से करूँ या नहीं, उस बारे में तुम ज्यादा न सोचो | सच तो यह हैं कि महासागर में चाँदनी का बिम्ब जब प्रतिबिंबित होता हैं, ऐसी ही तुम्हारी आँखों को पाने के लिए कई लोग मर मिटने पर तैयार होते हैं | तुम्हें यह सत्य कब समझ में आएगा ? मुझे भी यही बात काफी लम्बे अरसे के बाद समझ में आई थी | जब तुम्हारी आँखों में मैंने गरज़ता महासागर देखा था | मेरी दृष्टि ने, मेरी इन्द्रियों को सतेज किया था तब कान में ऐसा नाद गूंजने लगा था और न जाने क्यूं मेरे बत्तीस कोठे में दीप झिलमिलाने लगे थे, तुम्हारी कसम ! यह बात अगर मैं किसी और को कहने जाऊं तो लोग मुझे पागल ही समझेंगे | एक बात कहूं? मुझे इंसानों पर ज्यादा भरोसा नहीं हैं, इसीलिए तुम्हारे बारे में मैंने उसे कभी भी कुछ नहीं कहा |
हाँ, तुम्हारी बात करने का उत्साह जब उतावला होने लगे तो मैं दौड़ पड़ता हूँ उस एक्वेरियम के पास ! जिसके रंगों में, मुझे तुम्हारी मेघधनुषी प्रतिभा और पारदर्शिता का दर्शन होता हैं | इतना कुछ पाने के बाद भी मुझे निरंतर किसी अलौकिक तत्त्व का अहसास होता रहता हैं |
तुम कौन हो? यह प्रश्न बारबार मेरे सामने आता हैं | भले ही आए ! मैं जानता हूँ कि तुम कौन हो? इसीलिए तो कभी मैंने तुम्हें यह प्रश्न पूछा ही नहीं | कुछ प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए हमारा पागलपन होता हैं | मुझे ऐसा पागल नहीं बनना | मुझे जब भी इस प्रश्न का सामना करना पड़ता हैं तब मैं तुम्हारी स्मृति में खो जाने का प्रयास करता रहता हूँ | मेरी बंद आँखों के सामने तुम्हारा मुहाँसे वाला चेहरा उभर आता हैं | और फिर मैं धीरे-धीरे तुम्हारी बंद आँखों की पलकों को प्यार से उठाने का प्रयास करूँ, न करूँ और तुम्हारी ही आँखों को मेरे आने की भनक की ख़बर तुम्हारे कानों से मिल जाती हैं | फिर मेरे लिए पूरा महासागर ही छलका देने की श्रद्धा भी पूर्ण हो जाती हैं | मेरे सभी प्रश्न उस गरज़ते महासागर के नाद में अपनेआप घुलमिल जाते हैं | और उसमें से कोइ सुरीला सुर एक दिन बहाने लगेगा | ऐसी अनुभूति की पराकाष्ठा ही मेरे और तुम्हारे अस्तित्त्व को, हमारे स्वप्न को, कुछ पलों के लिए भी झंकृत कर देगी |
पांचवीं किश्त - मत्स्यकन्या और मैं.. - पंकज त्रिवेदी
कई बार तुम्हें देखकर ही मुझे ख़याल आता था कि जीवन में सभी सजीव दूसरे जीवों पर आधारित होते हैं | सबको अपनी इच्छाएं होती हैं, थोड़ा भी स्वार्थ होता हैं और उसे मीठा-सा नाम दिया जाता है प्रेम का | शार्क मछली ने जब से इंसान को निगलना शुरू किया है तब से उसकी आक्रामकता में घुलमिल गई है दगाखोरी !! इंसान भी शार्क जैसा हैं |
मगर मेरे सामने देखने की तुम्हारी इच्छा ही कहाँ? मैं बेसब्री से रटता था तुझे और आज भी कहाँ भूल पाया हूँ? शायद इसीलिए ही मेरी ज़ख़्मी संवेदना के घाव को कलम से कुरेद रहा हूँ | मैं अभी भी तुझे चाहता हूँ, यही पीड़ा मेरे जीवन का रक्त बनकर मुझे ज़िंदा रखती हैं |
मैं तुम्हारे लिए पागल बनकर दौड़ता था और तुम बिलकुल अनजान थी | मगर मैं तुम्हें जिस जिज्ञासा से देखता उसी तरह मेरा इंतज़ार करती कई अन्य मछलियाँ भी तो थी ! यह कैसा प्रेमचक्र हमारे जैसे कई प्रेमियों के लिए? जिसे चाहते हैं उसे देख सकें मगर पा नहीं सकते ! जो पा लेता हैं वह तो सिर्फ दंभ हैं, दिखावा हैं इसलिए उसमें बेचैनी नहीं रहती बल्कि छटपटाहट ही ज्यादा देखने को मिलती हैं | कैसा अजीब है यह जीवन हमारा?
तुम्हारे प्रति मेरा पागलपन देखकर फ़ोरेन रिटर्न मछली ने पूछा; "तुम अभी भी संवेदनाओं में ही जी रहे हो? कौन समझेगा तुम्हारी भावनाओं को?" तब मैंने उसके सामने देखा और तुरंत वह दूसरी दिशा में तैरने लगी, जहां मछलियों का समूह उसका इंतज़ार करता था...! मुझे पता था कि प्यार की सच्चाई में उसे ज्यादा रुचि नहीं थी | उसके लिए तो जीवन यानी आनंद.... आनंद... और सिर्फ आनंद | जो मिले उसमें आनंद पाने के कारण उसका मन कहीं स्थिरता प्राप्त नहीं कर पाता था | अगर ऐसा होता तो किसी के जीवन में दु:ख-दर्द ही न होता | इसी कारण से वह निरंतर घूमती रहती थी, भंवरे की भाँति !
आजकल तो समाज में देखते हैं तो सब जगह आधुनिकरण का अजगर सबको भींस पीस लेता हैं | एनाकोंडा जैसी मानसिकता में हमारी युवा पीढ़ी में लज्जा की बात तो दूर, बेफिक्र होकर कैसे ठेस पहुंचाते हैं ! युवक-युवतियों को समंदर के किनारे देखूं तो तुम्हारी याद आती हैं | उसमें मछली जैसी चंचलता तो बहुत होती हैं मगर संस्कार... बड़ा अंतर देखने को मिलता हैं | वास्तविकता कितनी कुरूप लगती हैं हमें ?
मैं हमेशा इन्हीं प्रश्नों की जाल में फंसता जाता हूँ और उसमें से ही प्रत्युत्तर खोजने को मथता रहता हूँ |
मुझे ये सब रास आता नहीं था | एक ओर आधुनिकता हैं तो दूसरी ओर मेरा पुरातन इतिहास है | मान, मर्यादा और संस्कार हैं | प्रेम है तो सच्चाई भी हैं | आज के युग की तरह छिछोलापन का तो काम ही नहीं | तुम ही कहो न...... आजतक तुझे कुछ भी कह पाया हूँ ? मैं तो अकेले में मेला और मेले में अकेला देखने का आदि था |
इसीलिए मेरे जीने का अंदाज़ ही निराला हैं | मैं शायद ही बोलता मगर मेरा जीवन ही बोलने लगा है अब ! उसके लिए मंझा हुआ मन भी तो चाहिए न? जो बारबार अनुभव कर सके जीवन को एक-एक पल में जी सकें ! मैं जी रहा था, चाहता था सिर्फ तुम्हारे लिएं ही !
मगर उसके लिए तो विचारशील और अनुभवी मन भी चाहिए | जो हर पल को समझ सके | वो सारी पल मेरा धबकार बन गई थी | मैं जी रहा था, बेचैनी से रटता था और चमक रहा था सिर्फ तुम्हारे लिए ही | मुझे अब वह दु:ख भी नहीं है कि तुम मुझे देख न पाई, मुझे समझ न पाई या फिर मिली भी नहीं | मेरी नियति में तुम्हारे लिए अटूट वेदना का बंधन ही लिखा होगा | हम अपनी नियति को झूठी कैसें साबित कर पाएं भला ! मुझे तो उस मछलियों ने कही थी वह व्यथा कि बात याद आती हैं ; अर्जुन ने भले ही बींध डाली मेरी आँख ! ऐसी एकाग्रता कौन दे सकता उन्हें मेरे सिवा... ?
कितना बड़ा समर्पण है उस मछली का ? मैं भले ही तुम्हारे नाम की माला का जाप करता रहा मगर उस मछली की तरह समर्पण करने की ताक़त ही कहाँ? मेरा अभी भी खुद पर भरोसा नहीं हैं | मुझे तो लगता है कि एक्वेरियम में मछली ने जब निश्वास छोड़ा होगा तब जल की सतह पर कैसे बुलबुले बने होंगे ! पल-पल तुम्हें रटने और प्रतीक्षा में अनिमेष नज़रों से समंदर को देखता रहता हूँ | मेरी आँखों की रौशनी भले ही कम हो रही हो मगर मेरी श्रद्धा में कभी भी ओट नहीं आई |
मुझे याद आती हैं एक पौराणिक कथा....
अंजनीपुत्र
पवनसुत हनुमान के
पसीने में से
गर्भवती हुई
उस मत्स्यगंधा की कथा
आज भी गाते हैं समंदर की गहराई में...
कौन जाने,
फिर कब आयेगा अंजनी का जाया
उस प्रतीक्षा में..... !!
प्रेम की सच्छाई जब पराकाष्ठा पर पहुँचती है तब ही प्रतीक्षा को साधना का दरजा मिलता हैं | कई वार प्राप्त करने की इच्छा ही हमें जीवन दे देती हैं | जब सब कुछ प्राप्त हो जाये तब जीवन नीरस बन जाता हैं | प्रतीक्षा की खुशी पाने में नहीं रहती| मुझे लगता हैं कि जो हुआ सो अच्छा हुआ | फिर भी हम एक-दूसरे के मन तक तो पहुँच गए हैं, ऐसा नहीं लगता तुम्हें? तुम्हारे पक्ष में क्या स्पष्ट हैं, यह जानने की ईच्छा मुझे नहीं है | मेरी आत्मा स्वीकार करती हैं कि मैं तुम्हारे मन तक पहुँच ही गया हूँ | तुम्हारे पारदर्शी शरीर पर उभरते स्नायुओं के ताने-बाने देखकर मैं अपने जीवन बिखरे टुकड़ों को सीने के लिए मथता रहता हूँ अविरत.....!
मछलीघर में तैरती लाल, पीली, सुनहरी, रूपहली, आसमानी जैसे रंगों की आभा रचकर मेघधनुषी मछलियाँ कितनी मनमोहक और पारदर्शक लगती है ! मुझे भी तुम्हारे आँखों में रही नमीं घेर लेती हैं | मेरी नज़रों के समक्ष विशाल समंदर लहराता हुआ दिखाई देता हैं और तुम्हारी काली पुतलियों का मनोहर नृत्य, मछली जैसे ही लगे - यह घटना मेरे मन छोटी सी तो नहीं हैं | किसी की आँखों में पूरा समंदर लहराने लगे, असंख्य नदियों के अंगभंगियाँ स्नेह से मिले और अपना सर्वस्व लुटाकर विलीन हो जाए उससे बढ़कर आत्मप्राप्ति और कौन सी हो सकती हैं...?
चतुर्थ किश्त - मत्स्यकन्या और मैं.. - पंकज त्रिवेदी
संभव हैं कि तुम्हारा कोइ प्रेमी हो और वह तुम्हारे प्रेम को समझ न पाया हो ! शायद तुम उसे जितना चाहती थी उतना चाहने की बात तो दूर, वह तुम्हें समझ ही न पाया हो और तुम तन्हा रहकर तरसती रहती निरंतर... अथवा वह किसी पूर्व जन्म का बदला भी ले रहा हो तुम्हारे साथ, अपने भाग्य का सहारा लेकर और तुम निरंतर प्रेमगंगा बहाती रहती हो, यह भी हो सकता हैं न? संभव यह भी हैं की तुम्हारी एक नज़र से उसे जीने का, जीवन की विडंबनाओं से लड़ने की प्रेरणा मिलती हो और वह एकाग्र होकर चलने लगा हो तुम्हें भूलकर कहीं ओर..... | तुम्हें तो वो घटना भी याद नहीं रही होगी, ठीक है न? अब तो तुम भी उसे भूलने का प्रयास करती होगी | मगर तुम्हें छोड़ने वाला तो कोइ और था | मैं तो तुम्हारे प्यार में पागल था, तुम्हारे प्रति कितना सम्मान ! यही कारण था की हर पल मैं तुम्हारे लिए जी रहा था | मैं तुम्हें अपनी दृष्टी से अलग देख ही नहीं सकता था | वो था, जिसे तुमने सबकुछ दे दिया और वह तुम्हें निस्पृह भावों से अनदेखी करके चला गया |
मैं तो तुम्हें आज तुम्हारी ही कहानी सुनाता हूँ | समंदर के किनारे पर किसी रोते हुए इंसान को देखकर एक मछली ने प्यारभरी नज़रों से देखा | उस इंसान को तुम्हारी नज़रों से नई ऊर्जा मिली, ऊष्मा मिली | दूसरे दिन- समंदर में उसने जाल फैलाया | उसमें फँसी हुई मछलियों में से एक मछली ने देखा इंसान के सामने... गौर से... | अपने कंधे पर जाल को उठाकर वह ताकतवर इंसान चलने लगा | उसे मछली की नज़रों से नज़रें मिलनी ही नहीं थी | अब समझ रही हो न तुम? उसने तो अपनी ही पसंद को जाल में फँसा दी थी मगर तुम्हारे प्यार को परखने की, उसे समझने या पाने की उन्हें फुर्सत ही कहाँ थी? मैं तो दूर से यह सब देख रहा था | मेरा मन उतावला होकर कईबार कहता कि तुम्हें रोक लूं | मैंने तुम्हारे साथ जीने के लिए कैसे सपने देखें थे, वह बताऊँ | मगर अफसोस यह है की तुम बिलकुल बेख़बर थी मेरे प्यार से | मैं तो इंसानों के बीच ही रहता हूँ, कैसे रह पाता हूँ ये तुम क्या जानो? सच कहूं तो जलकमलवत ! इसीलिए तो मैं अपनी पीड़ा के साथ सृष्टि के अनेक जीवों के जीवन को भी बड़ी सूक्ष्मता से देखता हूँ | कईं बार ऐसा भी हो कि मेरी और तुम्हारी बातें करते हुए मैं ही सबकुछ कह देता, जो मेरा अहसास था | मेरा तो स्वभाव हैं, कोइ मेरी बात सुने तो अच्छा, न सुने तो मैं खुद से ही संबाद कर लेता हूँ | मेरा अकेलापन जीवन की वास्तविकता हैं या नहीं, यह तो मुझे मालूम ही नहीं | फिर भी मैं अपने सपनों की बात कहता ही रहूँगा | लोग उसे भ्रमणा भी कह दें |
शायद इसीलिए ही -
खोखली इंसानियत मुझमें से ही छटकने लगी होगी !
और सारी इंसानी बिरादरी ने इल्जाम लगाया मुझ पर
कि तुम हमसे धोखा कर गए हो
और मैं सोचता हूँ,
मेरा सुख कहाँ हैं? मेरी पहचान क्या हैं?
अभी तो परिवर्तन की लहर में भिगोया, न भिगोया
ऐसे में दुष्ट वृत्तियों ने बगावत ही कर दी, फिर विचार आया
छोटी सी मछली को पकड़कर स्वाहा कर जाऊं,
कई प्रयासों के बाद भी विफलता...
मानों शरीर साथ नहीं देता था,
दोनों का अपना प्रभाव था और मैं उसमें
इधर-उधर हिल-डुल रहा था...
अचानक एक विशालकाय मछली मेरे पीछे पडी
शायाद, वो मेरा शिकार करने को बेताब थी !
मैं बिलकुल बेख़बर,
पहली मछली ने मेरे कान में कहा; "भाग जल्दी,
वो तुम्हें खा जाएगी... तेरे अस्तित्त्व को मिटा देगी..."
"इंसान" जैसा डर मेरे शरीर में फ़ैल गया
मैं अपनी अंगभंगी के नखरें भूलकर
जलराशि को चीरता हुआ तैरने लगता हूँ
तब -
एक बड़ी सी चट्टान की खोखली जगह में से आवाज़ सुनाई देती हैं मुझे
मैं अपनी गति रोककर, जल्दी से उस दिशा में...
देखते ही पहुच जाता हूँ
जहां वह मछली थी -
जिसने मुझे किस की थी... जिसका नाम मैंने
किस मछली रखा हैं
हम दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा और
मेरे पीछे शिकार करने को तेज़ी से तैरती वह विशालकाय मछली
चट्टान के साथ टकराती हैं और कईं टूकड़ों में बिखर जाती हैं...
किस मछली ने धीरे से पूछा मुझे; "अरे ! इन टूकड़ों में से इंसानी वृत्तियों की बू आ रही हैं !"
तब मैंने कहा; "मेरी आँखों में ध्यान से देखोगी तो एक दूसरा
समंदर दिखेगा तुम्हें, उसमें रहते इंसान और मेरे-तेरे जैसी
मछली की जाति में भी ख़ास कोइ फर्क नहीं
हाँ, फर्क हैं तो सिर्फ इतना कि -
उनमें मछली की रंगीनता हैं, निर्दोषता हैं और निखालस सरल वृत्ति.. !"
किस मछली ने मुझे फिर से किस करते हुए कहा; "तुम्हारी बात सही हैं, इंसान और
मछली, एक-दूसरे के पूरक हैं,
आखिर तो दोनों वृत्तियों का ही तो नाम हैं न...?
शायद -
मैं उन वृत्तियों को ही पा न सका, उसके विविध
स्वरूपों को पहचान न पाया
और तुम उसे पाने के बाद भी "मछली" होने से खुद को चंचल
साबित करके छटक गयी |
ठीक उसी समय -
किसमछली, जो पहले मिली थी,
जिसने उस विशालकाय के जबड़े में समा जाने से पहले
प्यार से भागने के लिए आदेश दिया था
वही मछली, चट्टान से निकली
मैंने उसे देखा, उसने मुझे
हम दोनों ने किस मछली को भी देखा,
वह चुपचाप आगे निकल गई... !!
तृतीय किश्त - मत्स्यकन्या और मैं.. - पंकज त्रिवेदी

मेरी तरह वह मछली भी किसी को कुछ भी नहीं कह पा रही थी | वह मन ही मन दु:खी हो रही थी | मगर मैं उन्हें सिखाऊंगा कि हम भेले ही अकेले हों, फिर भी उसी में से मार्ग ढूँढना हैं | हमारे अकेलेपन को ही चंचलता में बदल दें तो कैसा? अपने आप से ही संवाद करता इंसान कभी दु:खी नहीं होता | वह दूसरों के सहारे विवशता से भरा जीवन पसंद नहीं करता | मैं उस छोटी सी मछली को कहूंगा, सब लोग भले ही तुझे छोड़कर चले जाएं | तुम चिंता मत करो | तुम किसी ध्येय के लिए हिम्मत से आगे बढ़ती रहो | तुम्हारी तेजस्विता ही सबको तुम्हारी ओर खींच लाएंगी | उस वक्त तुम्हारा स्वमान अपने आप सम्मान में बदल जाएगा | बस, थोडा सा धीरज रखकर कार्य करती जाओ | फिर उसे कहूंगा कि देखो मुझे ! मैं भी कितनी दृढ़ता से जी रहा हूँ | मेरे साथ भी कोइ नहीं हैं | मेरा प्यार भी तो नहीं ! सब दिखावा होता हैं, दिखावा... |
तुम भी प्यार के लिए तरस रही हो, इतना तो मैं समझ सकता हूँ | तेरे और मेरे प्यार में समानता तो हैं मगर हमारी संवेदना में बहुत बड़ा अंतर हैं | मेरी पीड़ा का कोइ अंत नहीं हैं | मानों वह किसी झरने की तरह निरंतर बहता ही रहता हैं | मुझे जो कुछ भी कहना हैं उसके लिए शब्दों को ढूँढने की क्या जरूरत ? वह तो मेरे दिल के बाग़ में शोभा बनाकर मौन हो गए हैं..... मेरी पीड़ा की टहनी तो हमेशा हरियाली ही रही हैं, तो भला उस पर खिलने वाले फूल तो तरोताज़ा ही होंगे न..? मैंने तो तुम्हारा नया नाम भी रख दिया है | तुम्हें भी आश्चर्य होगा | कह दूं क्या? किस मछली ! कैसा लगा तुम्हारा यह नया नाम? तुम्हें जो मैं नहीं कह पाता, वह सबकुछ मैं खुद के साथ संवाद करते हुए बोल लेता हूँ | हवा में फैले मेरे संवेदनात्मक सुरों को शायद तुम सुन पाओ तो... !
मैं कौन हूँ और मेरा व्यक्तित्त्व ?
ऊपर से धधकता ज्वालामुखी
और भीतर में?
अंत तक गहराई में पहुँच जाओगे तुम
तब हाथ लगेगा एक लहराता, शांत,
बरगद की शाखा-प्रशाखाओं की तरह फैला हुआ समंदर !
इंसान कहाँ तक पहुँच पाए, कहाँ स्पर्श करे,
आधारित हैं उनकी कुशलता और वृत्ति पर
ऐसी, अनेकानेक वृत्तियाँ
सिवार की बेलीयों की तरह लिपट जाती है मुझे
मैं तो समंदर में भी निर्बंध होकर
ऐसे तैरना चाहता था कि -
समंदर में ही तैरते जलरंगों में
मेरे लिए मीठी-मीठी ईर्ष्या होने लगे
सिर्फ निछावर होने के लिल्ये मानो होड़ !
लगता हैं मैं कुछ ऐसा करूं,
लोग देखें और बस, हर्षित हो जाएँ.......
मगर-
"कुछ" करने की ललक जन्म ले उससे पहले
न जाने कितने उत्सुक बैठे हैं, उसका शिकार करने को
हाँ, नवजात बेटी जैसी "उत्तम वृत्ति" को दबे पाँव,
गला घोंट दिया जाय,
- और फिर
कहा जाए कि हमारे हाथ में क्या हैं?
सबकुछ ईश्वर की लीला....
फिर वही पंजा कुंकुमवर्ण होकर भले ही नीतरते हो !
ऐसी दो-तरफी वृत्तियों की जाल में से बारबार छूटने का
प्रयास करता हूँ, हमेशा विफल रहता हूँ
कृशकाय हो जाता हूँ....
गहरी निराशा में...!
फिर भी "कुछ" करने की ललक
इस जीर्ण शरीर में जगाती हैं चेतना
फिर, पूरे जोश के साथ खडा हो जाता हूँ
लोग देखतें, खुश होते, तालीयां बजातें
प्रोत्साहित करते मुझे
मेरी सकारात्मक वृत्तियाँ रोएं-रोएं में उतरकर
धकेलती है मुझे भीतर से
अब मैं तैयार हूँ, मेरे आसपास के लोग
परिवर्तित हो गए हैं भीड़ में....
उन्हें देखकर फूला नहीं समाता, मुझे जल्दी ही
"कुछ करना" हैं...
जिसका मुझे और आपको हैं बेसब्री से इंतजार !
अचानक वही भीड़ -
भीड़ की वृत्तियाँ भीस लेती हैं मुझे
और फिर उसीके बीच- दबता, गिरता, ठोकरें खाता हूँ...
आँख खुलती हैं-
समंदर की गहराई में एक विशाल चट्टान पर
पडा हूँ मैं, मानों भगवान विष्णु !
आसपास शीतलता, परम शान्ति,
मन मेरा स्वस्थ हैं...
मैं धीरे धीरे आँखे खोलता हूँ, निर्मल जल में
तैरती मेरी आँखें मछली बन जाती हैं
आसपास जलरंगों की अदभुत -
मनोहर मायावी
नगरी है और उसमें बिलकुल
अकेला सो रहा हूँ मैं... मानो समूचा कोरा...!
फिर चारों ओर देखता हूँ, वह भीड़ बने इंसान नहीं दिखते कहीं भी
नहीं दिखती उनकी दुष्ट वृत्तियाँ और वह नीली आँखें !
मेरी नज़र, शरीर को घेर लेती हैं
हरी, कोमल वनस्पति को जीमती छोटी-बड़ी रंगबिरंगी
मछलियों को देखता हूँ....
मेरे हाथ-पैर, कान-नाक, मेरा शरीर धीरे-धीरे
सिकुड़ता हैं, बस सिकुड़ता रहता हैं निरंतर....
तब एक मछली मेरे पास आकर मधुर स्मित कराती हैं
मैं खुद को देखकर शरमाता हूँ
तब दूसरी मछली
पहलीवाली को धक्का लगाकर मुझे किस करती हैं...
मैं अब "मैं" नहीं और फिर भी जो "मैं" था वो ही
मूलरूप में "मैं" फिर से ज़िंदा हो जाता हूँ...
आज मैं समझ पाता हूँ,
मैं तो इंसान नहीं, मछली की ज़ात !!!
(क्रमशः....)
द्वितीय किश्त - मत्स्यकन्या और मैं.. - पंकज त्रिवेदी
मछलीघर में तैरती रंगबिरंगी मछलियों के बीच मैं तुम्हारे अस्तित्त्व को पाने मथता | क्यूं? उस क्यूं का जवाब मेरे पास भी नहीं हैं, मैं भी खोज रहा हूँ उसके प्रत्युत्तर को ! हाँ, शायद तुम्हें उसका कोइ कारण या अर्थ मिल भी जाए तो मुझे कहोगी? अरे हाँ ! तुम कैसे कहोगी? हम दोनों तो एक-दूसरे को पाने से पहले ही ... तुम्हें बारबार देखने के बाद मेरे दिल की भावनाओं को ज़हन से कुछ शब्द मिले हैं | उसे मैं तुम्हें समर्पित करता हूँ .... मगर यह भी जानता हूँ कि वह शब्द तुम तक पहुंचेंगे नहीं और अगर पहुँच भी गए तो भी...? फिर भी मेरे इन शब्दों को तुम्हारे लिए, तुम्हारे सामने रखता हूँ...
मैं उसे देखूं
और
घुटन सी होने लगती
इस ओर जीवन, धबकार, गति, संघर्ष
और
जीने की चाह लिपट जाए
हरी-चिप चिपाती सिवार की तरह...!
सामने ही समंदर, असीम..
नया जीवन, फुर्तीलापन और फिर..?
सिर्फ छटपटाना...
आपका घर होगा, जाना-पहचाना नाम होगा और
मुहल्ला भी....
मेरा भी घर, उसका भी नाम,
एक्वेरियम...!
तुम्हें शायद आश्चर्य होगा | हमारे सम्बन्ध का कोइ नाम ही नहीं हैं और मैं कल्पना में मस्त होने लगा हूँ | मानों, मैं सचमुच घोड़े पर सवार होकर दूल्हा बनकर आ गया हूँ और तुम तो पहले से ही शर्मीली हो न...? मेरी बात सुनाने को कोई राजी न था तो मेरे परिवर्तन को कौन देखेगा भला ! मैं तो मछलियों के बीच तुम्हें ढूँढता रहता हूँ | मछलियों के रंगों के कारण ही मैं जीवन के रंगों को समझाने लगा, सजग होने लगा | मेरे पास क्या है? मेरे सपने ही मेरी अमानत हैं, मेरी पूंजी हैं, मेरा सबकुछ... | तुम्हारे कारण मेरा नाम रटने वाली मछलियाँ अब तो दिल जलने लगी हैं | निहारो मेरे इस स्वप्न के शब्द देह को...
केसरिया साफा बांधकर
ढलती हुई शाम के
धूमिल अजवास में
डूबता हुआ सूर्य.....
स्फटिक सी चमकीली रेत और नदी के
फैले हुए बहाव में
ब्याह रचाकर घर लौटने के बाद
मेघधनु की शोभा स्वागत करती हैं....
उसे देखकर मीठी मीठी ईर्ष्या करती हुई
तैरती नटखट मछलियाँ...!!
मेरे भीतर रहे सूर्य का उगना प्रत्येक सुबह को फुर्तीली ताज़गी देता हैं | उसका केसरिया साफा मेरे सपनों के लिए प्रेरणादायी प्रतीक बनकर उभरता हैं | स्फटिक से स्वच्छ संबंधो में हम साथ मिलकर प्रणय के फ़ाग खेलते हैं तब ये सारी नटखट मछलियाँ क्यूं न जले?
कल मैंने एक छोटी सी मछली को समंदर के भीतर चट्टानों के बीच छिपकर बैठी हुई देखी थी | मानों वो किसी के साथ पकड़ दौड़ का खेल खेलती हो | मुझे आश्चर्य भी हुआ | फिर तो कईं छोटी-छोटी मछलियाँ यहाँ-वहां भागती हुई दिखाई दी | मैं समझ नहीं पाया कि यह खेल रही हैं या किसी भय से... | कभी लहरों के ऊपर तो कभी गहरे पानी तक तैरती और छुप जाती | मगर धीरे-धीरे इस एक ही मछली को छुपाकर बैठी हुई देखी मैंने | संभव था कि इसके साथ खेलने वाली मछलियाँ एकजूट होकर इसे परेशान करती हो या किसी बात पर अनबन... क्या हुआ होगा, क्या पता? अब मैं उसके विचारों में खोने लगा | इस छोटी सी मछली को उसका बचपन कैसे लौटाऊँ? जो अचानक ही धीर-गंभीर हो गई थी | मुझे तो यह भी जानना होगा कि उसे हुआ क्या हैं ? सच कहूं? तुम्हे कोइ भी बात कहने से मैं डरता हूँ | तुम इस मछली की बात छोडो, कोई भी ऐसी बात को सुनाती हो तो ग़मगीन हो जाती हो | ठीक है, अब उसके बारे में ही पूरी बात सुन लो |
पापा को मिलने आई
बेटी,
वेकेशन में बुनती हैं प्रश्नों का जाल....
पापा,
उलझते रहते हैं उन में
यत्न करते हैं छूटने का, और
फंसते रहते हैं लगातार...
पापा, बेचैन- यहाँ
मम्मी- वहाँ
बेटी- यहाँ वहाँ
मम्मी पढ़ाती, सख्त स्वभाव से
कहानी सुनाएं पापा,
फिल्म, फ़नवर्ल्ड और आइसक्रीम का लुत्फ़
और हिल स्टेशन का आनंद
सिर्फ अट्ठाइस दिनों का फ़रमान
बेटी प्रश्न करती, मौन पापा
वहाँ तो गुस्सा मम्मी का
एक्वेरियम में तैरती हुई
वह पहुँच जाती हैं एक कोने में
अकेली, तन्हा,
सजल...!!
मत्स्यकन्या और मैं.. - पंकज त्रिवेदी
- नरेन्द्र व्यास
निर्जन द्वीप पर-
वेलेंटाईन मनाते युगल को देखकर मछली ने पूछा "आप क्या कर रहे हैं?"
"प्रेम...!" प्रेमी ने जवाब दिया |
"प्रेम इससे होता है...?" मछली ने जिज्ञासा से पूछा |
"तेरे पास दिल कहाँ सो जाने... " युवती ने प्यार में बाधा डालने वाली मछली से ऊंचे स्वर में कहा |
"...मगर सुना है कि दिल हो तो टूट भी जाता है न !" मछली की इस बात से युगल की क्रीडा जल्द ही ख़त्म हो गई | उन लोगों की पलायानता का मैं साक्षी बन गया | "एक बात कहूं ? तुम जब भी याद आती हो, तब मैं दौड़कर चला जाता हूँ उस मछलीघर के पास | तुम्हें शायद आश्चर्य भी होगा | तुम्हारी मौज़ूदगी में जो न कह सका, उस बात को मछलीघर के पास जाकर कह सकता हूँ | तुम्हें याद हैं? मैं हमेशा कहता था; तुम क्यूं रो रही हो?"
तब तुम्हारा हँसता हुआ खिला सा चेहरा बोल उठता "ना रे ना, मैं कहाँ रो रही हूँ!" और तुम अपनी आँखों पर हलके से हाथ फेरने लगती | मगर तुम्हारी आँखों की नमीं, मेरे रोंगटों में उतर जाती, उसी वक्त मैं तुम्हें सवाल पूछता रहता | तुम्हें भी इस बात की ख़बर कहाँ थी? मैं समझ नहीं पाता कि मछलियाँ इतनी प्यारी क्यूं लगती हैं मुझे? मैं तो निरंतर तुझ में ही मत्स्यकन्या को ही देखता हूँ | मेरे प्यार में ऐसा कुछ भी नहीं, जो दूसरों के लिए जरूरी हैं | मैं तो बस चाहता रहूँ , तुम्हारे सौन्दर्य को निहारता रहूँ और बारीक़ी से देखूं तुम्हारे चुलबुलेपन को | मत्स्यकन्या भले ही तुमसे अलग हो | मगर मुझे लगता है कि पुराणों की कथाओं में सब कुछ वास्तविक ही होगा या सिर्फ रोमांचक या कोरी कल्पनाएँ ?
मैंने कईं दोस्तों से सूना था- तुम उसके पीछे इतना पागल क्यूं हो? मछली के दिल नहीं होता, इस बात को जोड़कर तुम्हारे पास भी दिल नहीं है ऐसा कहतें | क्यूंकि मेरे प्यार की अनुभूति को तुमने कभी किसी प्रकार से ज़ाहिर नहीं होने दिया | तुम्हारी ओर से हमेशा शून्यता व्याप्त रहती हैं और मैं समंदर की भाँति तुम्हें देखकर हिलोरे लेता | तुम्हारी बारे में सबलोग मानते थे कि शायद ही.... तुम मुझे चाहती होगी | पता नहीं, तुम चुप क्यूं हो? हो सकता है कि तुम्हारी चुप्पी का कारण... तुम किसी ओर से भी प्यार करती हो... या और कुछ...! तुम शादीशुदा हो और फिर अकेलेपन ने घेर लिया हो तुम्हें | संभव हैं कि तुम नज़र कैद भी हो... ! तुम्हें देखकर मुझे लगता हैं कि - परदेस में बिहाई बेटी और एक्वेरियम की मछली के बीच फर्क सिर्फ इतना ही है कि एक काँच की दीवारों में नृत्य करके फड़फ़ड़ाती हैं... दूसरी पत्थरों की दीवारों में हँसती हुई भी...... !! एक खारेपन में जीए और दूसरी मीठास के बीच भी खारेपन में डूबती हुई जीए !
क्या ख़बर कि तुम कौन हो और तुम्हारा अपना कह सकें ऐसा कौन है? तुम कैसे जी रही हो या जीने का अभिनय करने की तुम्हारी कोइ मजबूरी है? तुम भले ही शीशमहल में रहती हो मगर तुम्हें देखकर सबको लगता है..... मानोगी नहीं शायद मगर कह दूं | हमारे सामने अहर्निश मुज़रा करती मासूम मजबूरी.... उस एक्वेरियम की मछली नहीं बल्कि तुम ही हो शायद... !!
(क्रमशः...)
नीरज दइया की पांच कविताएँ
नीरज दइया. जन्म: 22 सितम्बर 1968 । आप प्रख्यात साहित्यकार श्री सांवर दइया के सुपुत्र हैं। कई पुस्तकें प्रकाशित । कुछ प्रमुख कृतियाँ, 'साख' तथा 'देसूंटो' (कविता-संग्रह). निर्मल वर्मा तथा अमृता प्रीतम की किताबों के राजस्थानी में अनुवाद प्रकाशित । हिन्दी-राजस्थानी-गुजराती में परस्पर अनुवाद तथा राजस्थानी में कविता और आलोचना के लिए चर्चित । संपर्क : पी.जी.टी. (हिंदी), केंद्रीय विद्यालय, , क्रमांक-1. वायुसेना, सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर) राज. ; मो. 09461375668
खोखली हंसी
प्रेम के बिना
नहीं खिलते फूल
कुछ भी नहीं खिलता
बिना प्रेम के ।
मुरझा जाते हैं रंग
उड़ जाती है खुशबू
और खो जाती है हंसी
बिना प्रेम के ।
जो है खिला हुआ
उस के पीछे प्रेम है
जहां नहीं है प्रेम
वहां सुनता हूं-
खोखली हंसी ।
****
विरह की आग
विरह की आग
नहीं बुझती-
किसी जल से ।
भीतर के जल से
जलती है
जलाती है जिसे
उसका रोना नहीं होता
चीखना-चिल्लाना भी नहीं संभव
ऐसे राख हुआ जाता हूं मैं
मत छूना मुझे !
टूट जाएगा भ्रम तुम्हारा
मैं भीतर ही भीतर
ढेर हो चुका हूं !
****
फासला
कितना हो सकता है फासला
मिलन और विरह में
सुख और दुख में
आकाश से गिरती
किसी बूंद और सीपी में
किसी प्यास और पानी के बीच
फासला कितना हो सकता है ?
चलो यही बता दो
मंजिल और किसी राही में
क्या होती है कोई पहचान
पहले से ही किसी रूप में
बस इतना जान लो
हर फासला होता है तय
हौसलों और इरादों से
अगर है हौसला
कौन बदल सकता है
हमारा इरादा
बीच का फासला
कोई दूसरा नहीं
करेंगे हम ही तय ।
****
आधार
पेड़ के पास रहते हुए
या फिर
किसी पेड़ को देखते हुए
क्या आपने कभी
अपनी जड़ों के बारे में सोचा ?
मिट्टी का प्रेम
पालता है देह को
आधार है चेतना का
हमारी जड़ें !
****
अभी इस वक्त
अभी इस वक्त में
बहुत कुछ हो जाएगा-
मसलन इस संसार की
बढ़ जाएगी आबादी
और जन्म से पहले ही
हत्यारे खोजेंगे कन्या-भ्रूण
यह कोई नई बात नहीं !
क्या है नई बात ?
क्या है ऐसी कोई बात
जिसे हम नहीं जानते ?
हम जानते हैं
सारी की सारी बातें ।
कविता में इस वक्त
आप से क्या कहूं नई बात ?
क्या चाहते हैं आप ?
क्या हर किसी की चाहत
संभव है पूरी हो जाए
किसी एक कवि में !
आप प्रतीक्षा में है
बहुत सारी कविताएं
कोई नई किताब
किसी पत्रिका का विशेषांक
नहीं खरीदा आपने !
माफ करें !
कभी खरीद कर
कभी मांग कर
केवल अखबार पढ़ते है आप !
****
नीरज दइया पी.जी.टी. (हिंदी), केंद्रीय विद्यालय, क्र. १, वायु सेना, सूरतगढ़, जिला- श्रीगंगानगर (राज.)
पंकज त्रिवेदी
पूछा मैंने क्यूं देर से मिलाया हमें
पता नहीं क्यूं खुदा भी शरमाता है?
ये दिल से निकली है बात मेरे दोस्त !
कौन कहेता है कि तुम दूर हो हम से?
ये रिश्ता है दर्द का खुद ही को देख
वरना कौन हैं यहाँ जो गुमशुदा नहीं?
ये सलाखें नहीं कच्चा धागा है मेरे यार
हम वो कहाँ जो किसी के बंधने से रहें?
यूं ही जिया / राजेश चड्ढा
यूं ही जिया
...........
अभिनय-
अगर
कभी किया ,
तो ऐसे किया
जैसे- जीवन हो |
और
जीवन-
जब भी जिया ,
तो ऐसे जिया
जैसे-
अभिनय हो ।
जो-
सहज लगा ,
वही-
सत्य लगा ,
और-
जो सत्य लगा
उसे-
स्वीकार किया |
कभी-
अभिनय में ,
कभी-
जीवन में |
कोहरे की चादर - गिरीश जोशी
ठोकरें
ऐ दोस्त इतना भी प्यार न कर
लोग चले जाएँ ठोकरें मारते यहाँ
समझ ले तू भी अब इस ज़माने में
सच्चा प्यार करने वाले मिलेंगे कहाँ
ये दुनिया है शानों-शौकत के लिए
प्यार करने वाले तो फ़कीर हैं यहाँ
कोई नफ़रत का कारवाँ लेके आया हैं
मैं हूँ कि खुद को खींचे जाता हूँ यहाँ
क्या हक्क है तुम्हें प्यार करने का
दोस्त ! किसे वक्त है बेफ़िजूल यहाँ ?
आहट : जया केतकी
क्यों उसकी सिसकियों की आहट
कान के दरवाजे से ही लौट जाती है।
कहना चाहती है वो जो कह न सकी
सुनाए भी तो सुनी नहीं जाती है।
बन गई है वह एक भूली सी दास्तां
जो रह.रह कर उभर आती है।
पास ही उसका बसेरा है सबके
फिर भी नजर क्यों नहीं आती है।
बदल रही है करवटें किस्मत
रोशनी दूर होती जाती है।
आस है इक निगाहे हसरत की
हौसला जो उम्मीदों को देती है।
शिकायतों का दौर चलते ही जाता
बिना दाम खुलेआम बिक जाती है।
दबा के सिसकियों को रोज खाट के नीचे
सरेआम हाथ उनके लुटती है।
कैद रह जाती अगर आह निकलती दिल से
वहीं पे जिस्म लिए साँस आके रूकती है।
वेब दुनिया -पर आई कविता
आगोश में ले लिया है मुझे
तुम्हारी तरह
और
चुंबनों-सी बारिश की बूँदें
नहलाती है मुझे
मीठी नोंकझोंक-सी
चट्टानों की ठोकरें
फिर भी-
कितनी सुहानी लगती है
यह ज़िंदगी...!!
रंग और समुद्र
मानव के जीवन में कईं रंग हो ते हैं | सभी रंगों की अनोखी दास्ताँ होती है, सभी का सुख और दुःख अलग होता है | रंग मानव के जीवन को बसंत-बहार की ताजगी देते हैं और रंग ही मानव को विडंबनाओं की गहरी घाटी में घकेलाते हैं | रंगों के मिजाज के साथ बदलता मानव हमेशा अकल्पनीय रहा है | धारणाओं की मर्यादा में जो बंध जाए वह मानव कहाँ ! मानव का प्तात्येक पल उसके व्यक्तित्त्व के अनोखे रूप-रंग में कोइ नया ही स्वरूप धारण करता है | मानव को इस अकल्पनीय लीला का वर देकर ईश्वर क्या साबित करना चाहता होगा? सुख क्या है? सच में सुख है क्या? जिस पल में दुःख नहीं वह सुख है | हम लगातार उस पल को बेसब्री से रटते रहते हैं और दुःख हमसे चिपका रहता है | हमारे जीवन का प्रत्येक रंग हमारे अस्तित्त्व की पड़ताल करता है, तब किसी पल पसंदीदा रंग हमें मीठा दर्द देता है | दर्द हमेशा अप्रिय नहीं होता | मानव उसी दर्द के खुमार में सारा जीवन बिता देता है और वही उसके जीवन की संजीवनी बन जाता है |
मैंने तुम्हें
कुछ चटकीले रंग दी थे
चुनने को कहा था,
उनमें से कोइ एक रंग
जो फबता जो,
तुम्हारे तोप सौन्दर्य पर |
तुम थी, कि
रंगों में उलझ बैठी
मन बालकों की हाथ-सा
मचल उठा अभी रंगों पर
लेकिन, चयन तो करना था |
किसी एक रंग का |
तुम सारी उम्र रंगों से लिपटी रही
और मामाना खेलती रही |
मैं मोमबत्ती-सा जलता हुआ
हर बार अँधेरे को पीछे धकेलता रहा |
करता रहा इंतजार,
तुम्हारे जवाब का,
कि शायद तुम्हें,
कभी कोइ रंग पसंद आए
जिसे हर स्त्री
अपने जीवन में पसंद करती है |
समय के साथ मानव की अपेक्षाए भी विस्तृत होती रहती है | जीवन की स्वायत्तता बंधनों को उखाड़कर आगे निकल जाए, तब मनोभाव लहूलुहान हो जाते हैं | अपेक्षा और प्रेम के बीच बहुत बड़ा अंतर होता है | हम इन दोनों को जोड़ने का प्रयत्न करने लगे तब प्रश्नों की हारमाला का सृजन होता है | अपने साथी को मुक्त रखने की हमारी उदारता मानवीय है | मगर वह उदारता तो प्रेम का प्रतीक होती है | जब अपेक्षाओं का आवरण मन के आगे आकर खड़ा हो जाए, तब वह दर्द बन जाता है | अपने रंगों को बीनकर जीने का अधिकार तो सब को है | फिर भी प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शोभा के अनुसार रंग को पसंद करना चाहिए | रंग का चयन जीवन की शिस्त का एक हिस्सा है | मगर मानव जब चयन करने में भटक जाए तब उसका मार्ग बदल जाता है | मन हठ लेकर बैठ जाता है | सार-असार का भेद उसकी समझ में नहीं आता और जीवन के प्रत्येक पल को वह खिलौना समझकर खेलता रहता है | उस वक्त उसकी समझ में नहीं आता कि खुद के साथ कईं लोग मेघधनुषी रंगों के वास्तविक सौंदर्य को लेकर उसे सुन्दर बनाने के लिए खड़े हैं | उनका भी अलग दर्द है, जो भीतर से धीरे-धीरे जलता है | वह धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता है, अँधेरे को धकेलता है | कभी तो समझदारी का सूरज खिलेगा और मेरी इच्छाओं की मोमबत्ती अखंड रहेगी | इस आशा में जीने का दर्द जितना कष्टदायक है उतना ही मीठा होता है | खुद जिस रंग को चाहता है, उसी रंग के प्रति का समर्पण ही कभी-कभी मानव को जीवन देता है | वही दुःख आखिर सुख में परिवर्तित हो जाता है |
दूसरी ओर जीवन का एक अनूठा रंग है, जो खुद के द्वारा ही उभरकर आया है | निजरंग का अस्तित्त्व कोइ आकर लेकर सामने खड़ा हो तब उसके अनुभव में वात्सल्य और एश्वर्य का संगम होता है | मानव को इस अनोखे रंग का सुख जितना प्यारा है, उतना ही उसमें दर्द होता है और उतना ही सुख
नदियों की धारा समुद्र में मिल जाती है, यह प्रकृति का सनातन नियम है | नदियों के मिलन के बाद ही समुद्र को यौवन प्राप्त होता है | फिर उसमें खुशी के विविध रंगों की रचना होती है | उन रंगों में आकाश का प्रतिबिंब और सूर्य की किरणों का तेज अनोखा वैभव रचते हैं | समुद्र की यही खुशी और वैभव अचानक ही कोइ छीन ले तो? समुद्र के रंगों का यह सुख किसी की ईर्ष्या का कारण बन जाए या समुद्र को किसी की नजर लगे, उसके इस दर्द को कौन अनुभव कर पाएगा ? हम तो किसी और के सुख को देखने के आदि है | किसी का दुःख जल्दी से नज़रों में नहीं आता | यह मानव मन का स्वभाव है | स्त्री नदी है तो पुरुष समुद्र | नदी चंचल है और समुद्र धीर-गंभीर | नदी बह सकती है, समुद्र अडिग रह सकता है अथवा उसे रहना पड़ता है, यही नियति है | श्री आँसूं बहाकर सहजता से स्वस्थता प्राप्त कर पाती है, पुरुष के लिए यह संभव नहीं है | स्त्री का ह्रदय सीमित है, इस कारण उसकी भावनाएँ बहती हैं, जब कि पुरुष का ह्रदय तो समुद्र जैसा है | उसका बहना तो ईश्वर को भी मंजूर नहीं | नदी माता है तो समुद्र पिता है | पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारी में अडिग रहता समुद्र नदियों का दुःख कैसे सह पाए ? फिर भी वह आँसूं नहीं बहा सकता | पति से विमुख हुई स्त्री, नदी बनकर बहाने लगती है | तब एक पिता अपनी बेटी को समझाता है | बीमार बेटी समुद्र को देखने की जिद्द करती है | उसे भला कौन समझाए कि समुद्र जैसे ह्रदय के पिता की आँखों में देख सके इतनी परिपक्व नहीं हो पाई है अब तक ! तब पिता के दर्द शब्दों के आँसू बहाते हैं --
बीमार बेटी,
जिद्द करती है
समुद्र देखने की
मैंने कहा-
पहले ठीक हो जाओ
उसके बाद |
लेकिन नहीं,
मैंने कुछ किताबें दिखाई,
दवाई की शीशी तोड़ दी
फिल्म देखाना चाह तो
बोलना छोड़ दिया |
हार कर मैंने कहा,
बेटी झाँक मेरी आँखों में
देख,
हर किसी की आँख में
एक नदी बहती है |
सीने में
समुद्र लहराता है |
बस फर्क सिर्फ इतना है,
कोइ देख लेता है,
कोइ देख नहीं पाता |
(* इस आलेख में पंजाबी-हिन्दी कविश्री जसवीर त्यागी की दो कवितायेँ)