परम पूजनीय स्वामीश्री 'मानस' के दो कविताओं में से एक कविश्री हरिवंशराय बच्चन के 'मधुशाला' का प्रतिकाव्य अपनी ओर से अलग ही ध्वनि को उद्घोषित करता हैं... उम्मींद हैं कि स्वामीजी के दोनों रचनाएँ आपको पसंद आयेगी | - पंकज त्रिवेदी

धूल का कण.....


धूल का कण सरक कर परों के तले,

उसका धीरता से यूं सिमटना, सुकड़ना और नाचना।

खिल-खिल कर करना उसका यूं अट्टहास,

क्‍यों नहीं आता उसको अहं से उठना।

क्‍या नहीं जानता क्‍या वह अपनी ताकत?

अपने बल के प्रदर्शन को अभी।

पर शायद नहीं चाहता वो ये सब

वो कैसा खिलखिलाता सा दिखता है

वो हवा के नाजुक पंखों पर बैठ कर,

बना देता है रेत के ऊंचे -ऊंचे पहाड़।

गर्म तपती हुई धूप में,

रात की सीतलता का करता है इंतजार।।

डूबते सूरज की सपाट,

सिमटती और सरकती धूप में,

वो सोने सा गर्वित दिखता है।

बसन्‍त की सुकोमल शान्ति में वो,

सीने पर कांटे उगा कर हंसता है।।

अषाढ़, के मेघों की गरजना में,

गुन-गुनाता है वो मेध मल्हार

रिम-झिम टपकता बूँदों में भी।।

कैसी नन्‍हें बच्‍चे की तरह ,

सुबकियां भर-भर कर नहाता है

इतरता और इठलाता सा

और कभी डरा सहमा सा दिखता है।।

हाएं ! देखो इस मनुष्य को

न जाने क्‍या हो गया है,

कहां खो गई है इसकी हंसी।।

कहां छिन गया है

तेरी आंखों का उल्‍लास,

कहां छुट गया तेरा उन्माद।।

और बिखर गई तेरी हस्ति

नहीं दिखती तेरे कदमों

में कभी मदहोशी

तेरे जीवन में कोई उत्‍सव

और तू कर रहा है अपने ही

विनाश का अह्वान

खुद आपने ही हाथों से

देख ले फिर से अपने कदम को एक बार,

क्‍या वो तुझे चला रहे है।

या तू घिसट रहा उनके पीछे....।।

ठहर जा, ठिठक जा और देख ले।

एक पल में सब बदल जाएगा।

बस तुझे रूकना भर है,

परन्‍तु तू शायद रूकना भूल गया है,

बस एक कदम अब नहीं आगे रखना,

इसके बाद तो पूर्ण इति है।

नहीं देख सकेगा तू पीछे चाह कर भी कुछ,

क्‍या समय देखेगा है पीछे मुड़कर कभी?

एक काली छाया निगल चूकि होगी इस धरा को,

इन सुरम्‍य गर्वित जीवन को,

केबल बचा होगा अन्‍धकार,

एक काल के गर्व में

केवल अन्‍धकार, एक प्रलय,

विभीषिका समेटे अपने आँचल में.......।।

(2)

एक जीवित मधुशाला-


प्रियतम तेरे सपनों की, मधुशाला मैंने देखी है।
होश बढ़ता इक-इक प्याला, ऐसी हाला देखी है।।

मदिरालय जाने बालों नें,
भ्रम जाने क्यों पाला?
हम तो पहुंच गए मंजिल पे,
पीछे रह गई मधुशाला।।

शब्दों कि मधु, शब्दों की हाला,
शब्दों की बनी मधुशाला।
आँख खोल कर देख सामने,
बरस रही अब वो हाला।।

धर्म-ग्रंथ भी नहीं जले जब,
कहां जली चित की ज्वाला।
मन्दिर, मस्जिद, गिरिजो मे भी,
कहां छलक़ती अब हाला।।

चख कर मधु को बुरा कहे वो,
समझे खुद को मतवाला।
आंखें बोले, तन भी ड़ोले,
पर मुंह पे पडा रहे ताला।।

होली आए या आये दीवाली,
भेद है क्या पड़ने बाला।
अंहकार को देख लांघ जा,
फिर भभकेगी वो ज्वाला।।

प्रियतम पिला रही है हाला,
फिर भी क्यों खाली प्याला।
प्यास बूझ गी जबी सुरा से,
बनेगा तु खुद मधुशाला।।