(१)

माँ

आज

एक बार फ़िर मां को

उसके बच्चे ने

फ़िर से सताया,

उसका दिल तोड़ा

मां का रोम रोम, दर्द से

देर तक तड़पता रहा

इस दुख: और संताप के क्षणों में

हर बार की तरह

उसे, सुनाई पड़ी

ज़ोर ज़ोर से किसी बूढ़े के

हँसने की आवाज़

..अट्टाहस

जिसकी अनुगूँज

धकेल देती उसे

उसके अतीत के

किसी छाया चित्र में

जिसमें वह खुद को

अपने बच्चे की उम्र का देखती

और एक-एक कर

वह सभी दृश्य देखती

जिसमें उसकी माँ

असहाय रोती हुई

रिसती हुई

एक ओर खड़ी है।

(२)

ऐ...सुन ज़रा...!!!

जो बात तुझे तोड़ दे

जो भाव तुझे सहमा दे

जो भंगिमा तुझे कुरकुरा दे

जो संस्कार तुझे कुमल्हा दे

जो किताब तुझे कमज़ोरी दे

जो वाक्य तुझे शर्मा दे

जो नज़र तुझे "भोग्या" बना दे

जो कविता और जो कवि

जो ख्याल..

तेरी काम्यता के विचार बुने

जो हाथ तुझे सजा दे

किसी बाज़ार के लिये

जो एहसास तुझे भयातुर कर दे

जो धर्म

जो दृष्टिकोण, अवरुद्ध कर दे

तेरे नैसर्गिक विकास को

छीन ले तुझ से तेरी अपनी मुस्कान

रोप दे तेरे मस्तिषक में

एक अनचाहा गर्भ, जिसका बोझ

झुका देता है तेरी गर्दन, तेरी कमर

रोक लेता है तेरा यौवन.

इस कथित सभ्यता की गर्त ने

बना दिया है तुझे मात्र

एक अद्द्भुत आडंबर वाहिनी

सदियों पूर्व ही छीन लिया है

तुझ से तेरा उन्मुक्त यौवन.

तेरे जिस्म से

नज़र, धर्म, संस्कार जैसी एक-एक

आदिकालीन पत्तियों को मैं नौंच लेना चाहता हूँ

और, शरद ॠतु में ओक के पेड की तरह

नवजात, मौलिक और प्राकृतिक

बर्फ़ानी अंधडों में तेरा स्नान

जब बसंत आये, तब रोम रोम तेरा नया हो

सबलता, सुफ़ल, स्वावलांबन के फ़लों से

तेरा शरीर भर जाये

तू खिलखिला कर

सीधी कमर, सीधी गर्दन

आंख में आंख डाल कर

निडर होकर

दुनिया के सर्वोच्च शिखर पर खडे़ होकर

गर्व से कहे

मैं हूँ, मैं हूँ, मैं हूँ

एक स्त्री...!!