कभी ऐसा भी हो

कभी ऐसा भी हो

मैं बनू सविता

और ठहर जाऊं

द्यावापृथिवी के मध्य

तुम्हारे भाल क्षितिज पर

रक्तिम निशा बन

और देख पाऊं तुम्हें-

समय के उस पार

ऐसे में-

क्या संभव होगा

दिख पाना तुम्हारा

दिन और रात में ढलते हुए?

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अंधेरों की ओर

ये कैसा जीवन है

जो मैं जी रहा हूँ

दो परतों में लिपटा

जिसके एक सिरे पर मैं

और दूसरे पर तुम

बीच में रौशनी और अंधेरों के

बीच की ये अदृश्य सीमा

अंधेरों की चादर में लिपटा

मेरा अंतर्मन

पाना चाहता है तुम्हे

तुम्हारा होकर भी मैं

कहाँ हो पाया तुम्हारा !

मैंने तो

सीमाओं से मुक्त

आकाश चाहा था

जहां सिर्फ और सिर्फ

तुम हो और

तुम्ही में निहित हो मेरा वजूद

रोशनी तुम्हारे गुप्त अंधेरों से

होकर ही आती है

धीरे-धीरे धकेल रही है

मेरी साँसें अंत की ओर

मैं अग्रसर हूँ उन्ही अंधेरों की ओर

जहां से तुम्हारी अलौकिक रोशनी

मेरी गुजरी सांसों को

रोशन कर रही थी...