अंतिम किश्त...


थोड़ी देर बाद जब मैंने वहां से बिदाई लेने के लिए इशारा किया तब मत्स्यकन्या मेरे सामने देखती ही रही | जैसे ही मैं पीछे मुदा कि मत्स्यकन्या जल्दी से मेरे सामने आई और मुझे गले लगा लिया | मेरे लिए यह पल अत्यंत भावासभर था फिर भी वहां रहना मेरे लिए असंभव ही था | यह मैं उसे कैसे समझाता? इंसान होने के कारण समंदर के अंदर रह पाना... सोच ही नहीं सकता, यह वास्तविकता थी | हाँ, मै इतना जरूर चाहता था कि अगर मत्स्यकन्या मेरे साथ किनारे पर आए तो उनके लिए मैं जरूर कुछ कर सकता था | मैंने उसका हाथ पकड़ लिया | हम दोनों एक साथ तैरते हुए किनारे तक पहुंचे |

कुछ लोग अभी भी समंदर के किनारे पर थे | सभी ने मुझे देखा कि तुरंत खुशी से झूम उठे | और फिर......अचानक सब चुप हो गए | सभी के आश्चर्य के बीच मत्स्यकन्या भी पानी से बाहर आती दिखने लगी | किनारे के पास आते ही मत्स्यकन्या ने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया | मगर वह कैसे चल पाती? उनके तो पैर ही कहाँ? वह चलने को सक्षम ही नहीं थी | मैंने उसके हाथ को खींचा तो वह समझ गयी कि मैं उसे बाहर ले जाना चाहता हूँ | अचानक उसने देखा कि मेरे जैसे इंसान मछलियों को जाल में फँसाकर ले जाते थे | तो किनारे पर सुखाई गई मछलियों का ढ़ेर भी देखा | यह सब देखकर इंसानों पर से मानों मत्स्यकन्या का विश्वास ही उठ गया | क्यूंकि मैं भी तो आख़िर इंसान ही तो था... !! उसे ऐसा लगा कि मैं भी उसे इसी तरह लेने के लिए प्यार का बहाना बनाकर उन तक पहुंचा था... ! मछली का जन्मजात स्वभाव तो डरपोक हैं | शायद यह कारण भी था कि मत्स्यकन्या डर गई थी | उसने अपनी पूरी ताक़त के साथ मेरा हाथ छुड़वाया और पानी में गोता लगाया और फिर सर्रर्रर्रर्र... सी गहरे पानी में उतर गई |

मैं रोज समंदर के किनारे पर आकर बैठता हूँ | उसका इंतजार करता हूँ | शायद मत्स्यकन्या को कभी विचार आए कि मैं उन इंसानों में से नहीं हूँ | पूर्ण श्रद्धा के साथ मैं घंटों तक बैठा रहता हूँ | मगर अभी भी मत्स्यकन्या बाहर आई नहीं हैं |

भूख़-प्यास से बेहोश होकर मैं किनारे की रेत में गिर पडा हूँ | उठने की ताक़त ही कहाँ? समंदर की मौजें मुझे भिगोती हैं | शाम हो गई हैं | अचानक एक बड़ा सा मौजा आता हैं और पटकते ही समंदर में वापस मुड़ता हैं | तब किनारे की रेत में मेरा पूरा अस्तित्त्व *'दरिया का छोरा' बनाकर उसी में समा जाता हैं...........!!!

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समाप्त
(*'दरिया का छोरा' का मतलब यह है कि जब कोई मछुआरे का बेटा समंदर के पानी में बह जाए या डूब जाए तो उसे गुजराती में "दरियानो छोरूं थई गयो" कहते हैं | वैसे तो सभी मछुआरे *'दरिया के बेटे-छोरूँ ही तो हैं | )

"मत्स्यकन्या और मैं" - यह लम्बी कहानी मूल रूप से गुजराती से हिन्दी में आपके सामने आई हैं | प्रस्तुत कहानी में बिलकुल नया प्रयोग होने के कारण "भास्कर ग्रुप" के दोपहर के गुजराती संस्करण में प्रकाशित हुआ था | इस कहानी को पढ़ने के बाद बहुत सारे पाठकों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं | फेसबुक, ऑरकुट, ट्वीटर और विश्वगाथा के पाठकों-दोस्तों ने मैसेज के साथ फोन पर भी बहुत सारी चर्चाएँ की हैं | सभी ने इस कथा में कल्पना और पौराणिक किंवदंती (लोककथा) के आधार के प्रयोग को भी सराहा हैं | मैं उन सभी नामी-अनामी दोस्तों का शुक्रगुजार हूँ | साथ ही जिन्होंने इस कहानी को पढ़ने के बावजूद समयाभाव की वजह से अपने विचार प्रकट नहीं कर पाए हैं, उनका भी धन्यवाद करता हूँ | इस कथा को प्रकाशित करने और सजाने में मेरे साथी "विश्वगाथा" और "आखर कलश" के सम्पादक श्री नरेन्द्र व्यास का भी आप सभी के साथ अभिवादन करता हूँ |