अब तुम्हें क्या लगता हैं? हमारे ऐसे सानिध्य को हम क्या नाम देंगे? मुझे लगता हैं कि हमारा संबंध किसी नाम का मोहताज नहीं है | वो ऐसे ही बना रहें | जो संबंध नाम से हैं वह कभी कभी अपनी चमक खो देता ही हैं | हमारे संबंध ही चमक इस तरह चली जाएँ वो मुझे मंज़ूर नहीं हैं | लोग भले ही कह रहे हैं कि हम हमारे संबंध को नाम देने में विफल रहे हैं | मगर यह बात सुनने में मुझे अच्छी ही लगती हैं |

मुझे अगर तुम्हारे नाम के बारे में कोइ पूछे तो क्या कहूं? चांदनी कहूँ या मेघना? अवनी कहूं या आकाशगंगा ? मेरे लिएँ यह सभी नाम व्यर्थ हैं | तुम्हारा अस्तित्त्व मेरे मन शारीरिक अनुभूति हैं ही नहीं | मैं तो तुम्हें एक्वेरियम की मछलियों में भी पा सकता हूँ | चांदनी और मेघवर्षा में भी आत्मसात कर सकता हूँ , फिर तुम्हें खोजने की जरूरत ही कहाँ? मुझे तो तुम्हारी सागर सी आँखों में, पल-दो पल तैरने को मिले या एक्वेरियम की मछली मेरे सामने देखकर अंगभंगियों की लचक दिखाकर शरमा जाएं इससे ज्यादा क्या चाहिएं?

तुम्हें लगता होगा कि मैं तुम्हारे पीछे कितना पागल बन गया हूँ? हाँ, तुम जब से अभ्यास पूर्ण करके चली गयी हो, तब से मैंने मेरे में ही परिवर्तन का अहसास पाया है | मेरे घर में रहे एक्वेरियम की मछलियों को मैंने समंदर को सोंपकर बहा दी हैं | अब तो सिर्फ कांच का खाली पडा हुआ एक्वेरियम अब सिर्फ कांच की पेटी बनाकर टेबल पर पडा रहता हैं|

मुझे जब भी तुम्हारी याद आती हैं, तब मैं अपने अश्रुओं के दो चार बूँद उस एक्वेरियम में गिराता हूँ |

तुम्हारे बारे में मेरी कल्पनाएँ अंतहीन हैं | इसीलिए हमारे संबंधों के बारे में मेरी अभिव्यक्ति भी निरंतर बदलती रहती हैं | मगर उसमें उन मछलियों का सहवास एक पल भी नहीं रहता | तुम्हारे लिएँ मै नई कल्पना के रंगों को मिलाऊँ तो मत्स्यकन्या का स्वरूप उभरता हैं मेरे सामने ! तुम्हें मत्स्य और कन्या के उस अलौकिक रूप में देखता हूँ तब मेरे में छीपी हुई आध्यात्मिकता प्रकट हो जाती है और स्त्री-पुरुष के औपचारिक संबंध अपनेआप छू हो जाता हैं | तुम्हें शायद पता नहीं है कि मेरी इस दीवानगी के कारण मै हरपल अलग मस्ती में रहता | कौन, कब, क्या कहेंगे वह भी मैं नहीं जानता था | मानों मैं इंसानों के समाज से बिलकुल अलिप्त हो गया था | पुरुष के शरीर में मैं भी मत्स्य की तरह जीने लगा था | यही समंदर का किनारा साक्षी हैं, पूछ ले उसे ! मेरे समाज में मेरे परिवार की और खुद मेरी ही पहचान अलग थी |

पिछले कईं वर्षों से लोग हैरान-परेशान थे, मेरे व्यवहार और वाणी से ! तुम नहीं मानोगी, अब पहले की तरह मैं स्पष्ट बोल भी नहीं पाता | मेरी जुबां अटक जाती थी और पूरा शरीर धीरे धीरे सिकुडाने लगता हैं | पूरे शहर में बात फ़ैल गई थी | सभी लोग समंदर के किनारे पर उमड़ने लगे थे | अभी एक घंटे पहले ही किसी ने बात फैलाई थी | सभी लोग अचंबित थे | बच्चों और युवाओं में कुतूहल था | तो बुजुर्गों में चर्चा हो रही थी कि हमारी उम्र में कभी देखा नहीं | हाँ, पुराणों में कहीं मत्स्यकन्या का जिक्र मिलता हैं | मगर वास्तविक जीवन को उससे क्या ताल्लुक? पुराणों और धर्मग्रंथों लिखा हुआ ऐसा बहुत कुछ हैं, जिसकी अनुभूति हमारे लिएँ संभव ही नहीं | धार्मिक ग्रंथों में लिखी हुई कईं बातों से अभी लोग सहमत हो ऐसा भी हो सकता हैं! या हमारी संस्कृति की परम्परा के अनुसार हम अनादर करना सीखे ही नहीं | जो भी हो ! मगर यह बात सही हैं कि मत्स्यकन्या के बारे में सूना था मगर किसी ने देखी नहीं थी |

बुजुर्गों ने अपनी याददाश्त के धनुष की डोरी कान तक खींचकर निशान लेने का प्रयास प्रयास किया था | फिर भी कोइ निशान सही लगता नहीं था| पीढीओं से इतिहास को खोज लिया फिर भी कोइ ठोस जानकारी नहीं मिली| जो मिलता उससे संतोष नहीं था | यह सब के कारण पूरा शहर अपने काम-धंधे छोड़कर समंदर के किनारे पर आ खड़ा

था | दूर दूर तक उनकी नज़रें सागरपंछी बनकर उसने लगे थे | हमेशा दिखने वाली मछलियों को किसी ने इतनी आतुरता से नहीं देखी थी | उनके लिए तो यह सब सहज था मगर हजारों आँखों ने आज छोटी सी छोटी मछली को भी अपनी बगशक्ती का परिचय करवाया था | समग्र दृश्य ऐसा लगता था कि मानों सभी मछुआरे आज आँखों से समंदर को खंगालने के लिएँ इकठ्ठे हुए हो | सभी अपने-अपने विचार रखतें थे | कहीं पर बहस होती थी तो कहीं पर लोग शांत-स्वस्थ होकर खड़े थे | सभी की नज़रों की जिज्ञासावृत्ति की धार अब तेज़ होने लगी थी | उस वक्त ही एक घटना हुई | सभी की चिंता बढ़ गई | सब लोग हंगामा-शोर मचाने लगे | सभी की दृष्टि एक ही दिशा में स्थिर हो गई |

समंदर की दाईं ओर मोड़ पर ही समंदर किनारे से हे बहुत गहरा था | वह गहराई समंदर के मध्य भाग तक सामान ही थी | सब लोग यह बात जानते थे | ज्यादातर मछुआरे इस बात से वाकिफ़ थे | यही कारण था कि कोइ भी दाईं ओर से समंदर में जाने का साहस ही नहीं करते थे| उस खाड़ी के बारे में कहा जाता था कि प्रतिवर्ष किसी न किसी का भोग लेता ही हैं | कोइ अनजान आदमी उस तरफ़ जाने की गलती करें तो ठीक हैं मगर मेरे जैसा यानी किशन जैसा श्रेष्ठ तैराक युवक को दाई खाड़ी में नहीं जाना चाहिए था | सभी को मेरी तैराकी पर पूरा भरोसा था | वहां पर भूतकाल में कईं नाव और बड़े-बड़े जहाज समेत कईं मछुआरे समा गएं थे | इसी कारण से सभी के मन में वो बात ठूंस गई थी | लोगों की चिंता भी सही थी | सब लोग मस्यकन्या को देखने की लालच में खड़े थे | पता नहीं कहाँ, कैसे दिखेगी वह? कैसी होगी? यही प्रश्न, आतुर आँखें और बहस से समंदर का किनारा छलकने लगा था |