जानती हूँ,

तुम्हारा दर्प
तुम्हारे भीतर छुपा है.

उस पर मैं
परत-दर-परत
चढाती रही हूँ
प्रेम के आवरण

जिन्हें ओढकर
तुम प्रेम से भरे
सभ्य और सौम्य हो जाते हो

जब कभी भी
मेरे प्रश्न
तुम्हें निरुत्तरित कर देते हैं,
तुम्हारी खिसियाहट
कोंचती है
तुम्हारे दर्प को
और उठ बैठता है
वह फुंफकार कर

केंचुली की भांति
उतरते जाते हैं
प्रेम के आवरण
परत-दर-परत

हर बार की तरह तुम
क्षण भर में ही

उगल देते हो
ढेर सारा ज़हर
मेरे पीने के लिए

इस बार मैंने
ज़हर के बदले ज़हर को
तो उगला है
ही अंदर समेटा है
नीलकंठ की तरह

ओढ़ लिया है
एक आवरण
मैंने भी
देखो !
मेरी आँखों में चमक है
और चेहरे पे मुस्कराहट...